नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन

महाभारत शान्ति पर्व में आपद्धर्म पर्व के अंतर्गत 165वें अध्याय में नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

नाना प्रकार के पापों का वर्णन

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन सम्पूर्ण वेदों और उपनिषदों का पांरगत विद्वान ब्राह्मण यदि यज्ञ करने वाला हो तथा उसका धन चोर चुरा ले गये हों तो राजा का कर्तव्य है कि वह उसे आचार्य की दक्षिणा देने, पितरों का श्राद करने तथा वेद-शास्त्रों का स्वाध्‍याय करने के लिये धन दे। भरतनन्दन! ये श्रेष्ठ ब्राह्मण प्राय: धर्म के लिये धन की भिक्षा माँगते देखे गये हैं। इन्‍हें दान और विद्याध्‍ययन के लिये धन देना चाहिये। भरतश्रेष्ठ! इससे भिन्न परिस्थिती में ब्राह्मण को केवल दक्षिणा देनी चाहिये और ब्राह्मणेतर मनुष्‍यों को भी यज्ञवेदी से बाहर कच्चा अन्न देने का विधान है। राजा को चाहिये कि वह ब्राह्मणों को उनकी योग्यता के अनुसार सब प्रकार के रत्नों का दान करे; क्योंकि ब्राह्मण ही वेद एवं बहुसंख्‍यक दक्षिणावाले यज्ञरूप हैं। अपनी सम्पत्ति के अनुसार समस्त कार्यों का आयोजन करने वाले वे ब्राह्मण सदा आपस में मिलकर गुण युक्‍त यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। जिस ब्राह्मण के पास अपने पालनीय कुटुम्‍बीजनों के भरण-पोषण के लिये तीन वर्ष तक उपभोग में आने लायक प्रर्याप्‍त धन हो अथवा उससे भी अधिक वैभव विधमान हो, वही सोमपान का अधिकारी है-उसे ही सोमयाग का अनुष्ठान करना चाहिये। यदि धर्मात्‍मा राजा के रहते हुए किसी यज्ञ कर्ता का, विशेषत: ब्राह्मण का यज्ञ धन के बिना अधूरा रह जाय-उसके एक अंश की पूर्ति शेष रह जाय तो राजा को चाहिये कि उसके राज्‍य में जो बहुत पशुओं तथा वैभव से सम्पन्न वैश्‍य हो, यदि वह यज्ञ तथा सोमयाग से रहित हो तो उसके कुटुम्ब से उस धन को यज्ञ के लिये ले ले। किंतु राजा अपनी इच्छा के अनुसार शूद्र के घर से थोडा-सा भी धन न ले आवे; क्योंकि यज्ञों में शूद्र का किंचिन्मात्र भी अधिकार नहीं है। जिस वैश्‍य के पास एक सौ गौएं हों और वह अग्निहोत्र न करता हो, तथा जिसके पास एक हजार गौएं हों और वह यज्ञ न करता हो, उन दोनों के कुटुम्बों से राजा बिना विचारे ही धन उठा लावे। जो धन रहते हुए उसका दान न करते हों, ऐसे लोगों के इस दोष को विख्‍यात करके राजा सदा धर्म के लिये उनका धन ले ले, ऐसा आचरण करने वाले राजा को सम्पूर्ण धर्म की प्राप्ति होती है।

युधिष्ठिर! इसी प्रकार मैं अन्न के विषय में जो बात रहा हूँ, उसे सुनो। यदि ब्राह्मण अन्नाभाव के कारण लगातार छ: समय तक उपवास कर जाय तो उस अवस्था में वह किसी निकृष्ट कर्म करने वाले मनुष्‍य के घर से उतने धन का अपहरण कर स‍कता है, जिससे उसके एक दिन का भोजन चल जाय और दूसरे दिन के लिये कुछ बाकी न रहे। खलिहान से, खेत से, बगीचे से अथवा जहाँ से भी अन्न मिल सके, वहीं से वह भोजनमात्र के लिये अन्न उठा लावे और उसके बाद राजा पूछे या न पूछे उसके पास जाकर अपनी वह बात उसे कह दे। उस दशा में धर्मज्ञ राजा धर्म के अनुसार उसे दण्‍ड न दे; क्योंकि क्षत्रिय राजा की नादानी से ही ब्राह्मण को भूख का कष्ट उठाना पड़ता है।[1] राजा उसके शास्त्रज्ञान और स्वभाव का परिचय प्राप्‍त करके उसके लिये उचित आ‍जीविका की व्यवस्था करे और जैसे पिता अपने औरस पुत्र की रक्षा करता है, उसी प्रकार वह उस ब्राह्मण की रक्षा करे। प्रतिवर्ष किये जाने वाले आग्रयण आदि यज्ञ यदि न किये जा सके हो तो उनके बदले प्रतिदिन वैश्वानरी इष्टि समर्पित करे। मुख्‍य कर्म के स्थान में जो गौण कार्य किया जाता है, उसका नाम अनुकल्प है, धर्मज्ञ पुरुषों द्वारा बताया गया अनुकल्‍प भी परम धर्म ही है। क्योंकि विश्‍वेदेव, साध्‍य, ब्राह्मण और महर्षि- इन सब लोगों ने मृत्यु से डरकर आपतकाल के विषय में प्रत्येक विधि का प्रतिनिधि नियत कर दिया है। जो मुख्‍य विधि के अनुसार कर्म करने में समर्थ होकर भी गौण विधि से काम चलाता है, उस दुर्बुद्धि मनुष्‍य को पारलौकि‍क फल की प्राप्त्‍िा नहीं होती।[2]

वेदज्ञ ब्राह्मण को चाहिये कि वह राजा के निकट अपनी आवश्‍यकता निवेदन न करे; क्योंकि ब्राह्मण की अपनी शक्ति तथा राजा की शक्ति में से उसकी अपनी ही शक्ति प्रबल है। अत: ब्रह्मवादियों का तेज राजा के लिये सदा दु:सह है। ब्राह्मण इस जगत का कर्ता, शासक, धारण-पोषण करने वाला और देवता कहलाता है। अत: उसके प्रति अमंगलसूचक बात न कहे। रूखे वचन न बोले। क्षत्रिय अपने बाहुबल से, वैश्‍य और शूद्र धन के बल से तथा ब्राह्मण मन्‍त्र एवं हवन की शक्ति से अपनी विपत्ति से पार हो सकता है। न कन्‍या, न युवती, न मन्‍त्र न जानने वाला, न मूर्ख और न संस्‍कार हीन पुरुष ही अग्नि में हवन करने का अधिकारी है। यदि ये हवन करते हैं तो स्‍वयं तो नरक में पड़तें ही है, जिसका वह यज्ञ है, वह भी नरक में गिरता है। अत: जो यज्ञ कर्म में कुशल और वेदों का पारंगत विद्वान हो, वही होता हो सकता है। जो अग्निहोत्र आरम्‍भ करके प्रजापति देवता के लिये अश्‍वरूप दक्षिणा का दान नहीं करता, धर्मदर्शी पुरुष उसे अनाहिताग्नि कहते[3] हैं। मनुष्‍य जो भी पुण्‍यकर्म करे उसे श्रद्धापूर्वक और जितेन्द्रिय भाव से करे। पर्याप्‍त दक्षिणा दिये बिना किसी तरह यज्ञ न करे। बिना दक्षिणा का यज्ञ प्रजा और पशु का नाश करता है और स्‍वर्ग की प्राप्ति में भी विघ्न डाल देता है। इतना ही नहीं वह इन्द्रिय, यश, कीर्ति तथा आयु को भी क्षीण करता है। जो ब्राह्मण रजस्‍वला स्त्री के साथ समागम करते हैं, जिन्‍होने घर में अग्नि की स्‍थापना नहीं की है, तथा जो अवैदिक रीति से हवन करते है, वे सभी पापाचारी है। जिस गांव में एक ही कुएँ का पानी सब लोग पीते हैं, वहाँ बारह वर्षों तक निवास करने से तथा शूद्रजाति की स्त्री के साथ विवाह कर लेने से ब्राह्मण भी शुद्र हो जाता है। यदि ब्राह्मण अपनी पत्‍नी के सिवा दूसरी स्त्री को श्‍य्‍यापर बिठा ले अथवा बड़े-बूढे़ शूद्र को या ब्राह्मणेतर-क्षत्रिय या वैश्‍य को सम्‍मान देता हुआ ऊँचे आसन पर बैठाकर स्‍वयं चटाई पर बैठे तो वह ब्राह्मणत्‍व से गिर जाता है। राजन! उसकी शुद्धि जिस प्रकार होती है, वह मुझसे सुनो।

ब्राह्मणों की शुद्धि

यदि ब्राह्मण एक रात भी किसी नीच वर्ण के मनुष्‍य की सेवा करे अथवा उसके साथ एक जगह रहे या एक आसन पर बैठे तो इससे जो पाप लगता है, उसको वह तीन वर्षों तक व्रत का पालन करते हुए पृथ्‍वी पर विचरने से दूर सकता है।[2] राजन! परिहास में, स्त्री के पास, विवाह के अवसर पर, गुरु के हित के लिये अथवा अपने प्राण बचाने के उद्देश्य से बोला गया असत्य हानिकारक नहीं होता। इन पाँच अवसरों पर असत्य बोलना पाप नहीं बताया गया है। नीच वर्ण के पुरुष के पास भी उत्‍तम विद्या हो तो उसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण करना चाहिये और सोना अपवित्र स्‍थान में भी पड़ा हो तो उसे बिना हिचकिचाहट के उठा लेना चाहिये। नीच कुल से भी उत्‍तम स्‍त्री को ग्रहण कर ले, विष के स्‍थान से भी अमृत मिले तो उसे पी ले; क्‍योकि स्त्रियाँ, रत्‍न और जल- ये धर्मत: दूषणीय नहीं होते हैं। गौ और ब्राह्मणों का हित, वर्ण संकरता का निवारण तथा अपनी रक्षा करने के लिये वैश्‍य भी हथियार उठा सकता है। मदिरापन, ब्रह्महत्‍या तथा गुरुपत्‍नीगमन- इन महापापों से छूटने के लिये कोई प्रायश्चित नहीं बताया गया है। किसी भी उपाय से अपने प्राणों का अंत कर देना ही उन पापों का प्रायश्चित होगा, ऐसी विद्वानों की धारणा है।[4]

सुवर्ण की चोरी, अन्‍य वस्‍तुओं की चोरी तथा ब्राह्मण का धन छीन लेना-यह महान पाप है। महाराज! मदिरापान और अगम्‍या स्त्री के साथ गमन करने से, पतितों के साथ सम्‍पर्क रखने से तथा ब्राह्मणेतर होकर ब्राह्मणी के साथ समागम करने से स्‍वेच्‍छाचारी पुरुष शीघ्र ही पतित हो जाता हे। पतित के साथ रहने से, उसका यज्ञ कराने से और उसे पढा़नें से मनुष्‍य एक वर्ष में पति‍त हो जाता है; परंतु उसकी संतान के साथ अपनी संतान का विवाह करने से, एक सवारी या एक आसान पर बैठने से तथा उसके साथ में भोजन करने से वह एक वर्ष में नहीं, किंतु तत्काल पति‍त हो जाता है। भरतनन्दन! उपर्युक्‍त पाप अनिर्देश्‍य (प्रायश्चितरहित) कहे गये हैं। इन्हें छोड़कर और जितने पाप हैं, वे निर्देश्‍य हैं- शास्त्र में उनका प्रायश्चित बताया गया है। उसके अनुसार प्रायश्चित करके पाप का व्यसन छोड़ देना चाहिये। पूर्वोक्‍त (शराबी, ब्रह्महत्यारा और गुरुपत्नीगामी) तीन पापियों के मरने पर उनकी दाहादिय क्रिया किये बिना ही कुटुम्‍बीजनों को उनके अन्न और धन पर अधिकार कर लेना चाहिये। इसमें कुछ अन्‍यथा विचार करने की आवश्‍यकता नहीं है। धार्मिक राजा अपने मन्त्री और गुरुजनों को भी पति‍त हो जाने पर धर्मानुसार त्याग दे और जब तक ये अपने पापों का प्रायश्चित न कर लें, तब तक इनके साथ बातचीत न करे। पापाचारी मनुष्‍य यदि धर्माचरण और तपस्या करे तो अपने पाप को नष्ट कर देता है। चोर को ‘यह चोर है’ ऐसा कह देने मात्र से चोर के बराबर पाप का भागी होना पड़ता है। जो चोर नहीं है, उसको चोर कह देने से मनुष्‍य को चोर से दूना पाप लगता है। कुमारी कन्या यदि अपनी इच्छा से चरित्रभ्रष्ट हो जाय तो उसे ब्रह्महत्या का तीन चौथाई पाप भोगना पड़ता है। और जो उसे कलंकित करने वाला पुरुष है, वह शेष एक चौथाई पाप का भागी होता है। इस जगत में ब्राह्मणों को गाली देकर या उन्हें तिरस्कारपूर्वक धक्के देकर हटाने से मनुष्‍य को बडा़ भारी पाप लगता है। सौ वर्षों तक तो उसे प्रेत की भाँति भटकना पड़ता है, कहीं भी ठहरने के लिये ठौर नहीं मिलता। फिर एक हजार वर्षों तक उसे नरक में गिरकर रहना पड़ता है।[4]

शुद्धि के उपाय

अत: न ब्राह्मण को गाली दे और न उसे कभी धरती पर गिरावे। राजन! ब्राह्मण के शरीर में घाव हो जाने पर उससे निकला हुआ रक्त धूल के जितने कणों को भिगोता है, उसे चोट पहुँचाने वाला मनुष्‍य उतने ही वर्षों तक नरक में पडा़ रहता है। गर्भ के बच्चे की हत्या करने वाला यदि युद्ध में शस्त्रों के आघात से मर जाय तो उसकी शुद्धि हो जाती है अथवा प्रज्वलित अग्नि में कूदकर अपने आपको होम दे तो वह शुद्ध हो जाता है। मदिरा पीने वाला पुरुष यदि मदिरा को खूब गर्म करके पी ले तो पाप से छुटकारा पा जाता है, अथवा उससे शरीर जल जाने के कारण उसकी मृत्यु हो जाय तो वह शुद्ध हो जाता है। इस प्रकार शुद्ध हो जाने पर ही वह ब्राह्मण शुद्ध लोकों को प्राप्‍त कर सकता है, अन्यथा नहीं। पापपूर्ण विचार रखने वाला दुरात्मा पुरुष यदि गुरु पत्नी-गमन का पाप कर बैठे तो वह लोहे की गरम की हुई नारी-प्रतिमा का आलिंगन करके प्राण दे देने पर ही उस पाप से शुद्ध होता है। अथवा अपने शिश्‍न और अण्‍डकोष को स्वयं ही काटकर अञ्जलि में लेकर सीधे नैर्ॠत्य दिशा की ओर जाता हुआ गिर पड़े या ब्राह्मण के लिये प्राणों का परित्याग कर दे तो शुद्ध हो जाता है। अथवा अश्‍वमेध यज्ञ, गोसव नामक यज्ञ या अग्निष्टोम यज्ञ के द्वारा भलीभाँति यजन करके वह इहलोक तथा परलोक में पूजित होता है। ब्रह्महत्‍या करने वाला मनुष्‍य उस मरे हुए ब्राह्मण की खोपडी़ लेकर अपना पापकर्म लोगों को सुनाता रहे और बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सबेरे, शाम और दोपहर तीनों समय स्नान करे। इस प्रकार वह तपस्या में संलग्‍न रहे। इससे उसकी शुद्धि हो जाती है।[5]

इसी तरह जो जान-बूझकर गर्भिणी स्त्री की हत्या करता है; उसे उस गर्भिणी-वध के कारण दो ब्रह्म हत्याओं का पाप लगता है। मदिरा पीने वाला मनुष्‍य मिताहारी और ब्रह्मचारी होकर पृथ्‍वी पर शयन करे। इस तरह तीन वर्षों तक रहने के बाद ‘अग्निष्टोम’ यज्ञ करे। तत्पश्‍चात एक हजार बैल या इतनी ही गौएं ब्राह्मणों को दान दे तो वह शुद्ध हो जाता है। यदि वैश्‍व की हत्या कर दे तो दो वर्षों तक पूर्वोक्‍त नियम से रहने के बाद एक सौ बैल और एक सौ गौओं का दान करे, तथा शूद्र की हत्या कर देने पर हत्यारे को एक वर्ष तक पूर्वोक्‍त नियम से रहकर एक बैल और सौ गौओं का दान करना चाहिये। कुत्‍ते, सुअर और गदहों की हत्‍या करके मनुष्‍य शूद्रवध-सम्बन्धी व्रत का ही आचरण करे। राजन! बिल्ली, नीलकण्‍ठ, मेढक, कौआ, साँप और चूहा आदि प्राणियों को मारने से भी उक्‍त पशु वध के ही समान पाप बताया गया है।

दूसरे प्रकार के प्रायश्चित का वर्णन

अब दूसरे प्रायश्चितों का भी क्रमश: वर्णन करता हूँ। अनजान में कीड़ों-मकोड़ों का वध आदि छोटा पाप हो जाय तो उसके लिये पश्‍चाताप करे। इतने ही से उसकी शुद्धि हो जाती है। गौ वध के सिवा अन्य जितने उप पातक हैं उनमें से प्रत्येक के लिये एक-एक वर्ष तक व्रत का आचरण करे। श्रोत्रिय की पत्नी से व्यभिचार करने पर तीन वर्ष तक और अन्य परस्त्रियों से समागम करने पर दो वर्षों तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए दिन के चौथे पहर में एक बार भोजन करे। अपने लिये पृथक स्थान और आसन की व्यवस्था रखते हुए घूमता रहे। दिन में तीन बार जल से स्नान करे। ऐसा करने से ही वह अपने उपर्युक्त पापों का निवारण कर सकता है। जो अग्नि को भ्रष्ट करता है, उसके लिये भी यही प्रायश्चित है।[5] जो अपने श्रेष्ठ पति को छोड़कर अन्य पापी की शय्या पर जाती है, उस कुलटा को अत्यन्त विस्तृत मैदान में खडी़ करके राजा कुत्‍तों से नोचवा डाले। इसी तरह व्यभिचारी पुरुष को बुद्धिमान राजा लोहे की तपायी हुई खाट पर सुलाकर ऊपर से लकडी़ रख दे और आग लगा दे, जिससे वह पापी उसी में जलकर भस्म हो जाय। महाराज! पति की अवहेलना करके पर पुरुषों से व्यभिचार करने वाली स्त्रियों के लिये भी यही दण्‍ड है, उपर्युक्‍त कहे हुए में जिन दुष्टों के लिये प्रायश्चित बताया है, उनके लिये यह भी विधान है कि एक वर्ष के भीतर प्रायश्चित न करने पर दुष्ट पुरुष को दूना दण्‍ड प्राप्‍त होना चाहिये। जो मनुष्‍य दो, तीन, चार या पाँच वर्षों तक उस पतित पुरुष के संसर्ग में रहें, वह मुनिजनोचित व्रत धारण करके उतने ही वर्षों तक पृथ्‍वी पर घूमता हुआ भिक्षावृत्ति से जीवन-निर्वाह करे।[6]

ज्येष्‍ठ भाई का विवाह होने से पहले ही यदि छोटा भाई अधर्मपूर्वक विवाह कर ले तो ज्येष्‍ठ को ‘परिवित्ति’ कहते हैं; छोटे भाई को ‘परिवेत्ता’ कहते हैं और उसकी पत्नी को जिसका परिवेदन (ग्रहण) किया जाता है, परिवेदनीया कहते हैं- ये सब-के-सब पति‍त माने गये हैं। इन तीनों को पृ‍थक-पृथक अपनी शुद्धि के लिये उसी व्रत का आचरण करना चाहिये जो यज्ञहीन ब्राह्मण के लिये बताया गया है। अथवा एक मास तक चान्द्रायण या कृच्छ्रचान्द्रायण व्रत करे। परिवेत्ता पुरुष उस नववधू को पतोहू के रूप में ज्येष्‍ठ भाई को सौंप दे और ज्येष्‍ठ भाई की आज्ञा मिलने पर छोटा भाई उसे पत्नीरूप में ग्रहण करें। ऐसा करने पर वे तीनों धर्म के अनुसार पाप से छुटकारा पाते हैं। पशु जातियों में गौओं को छोड़कर अन्य किसी की अनजान में हिंसा हो जाय तो वह दोषावह नहीं मानी जाती; क्योंकि मनुष्‍य को पशुओं का अधिष्ठाता एवं पालक माना गया है। गो वध करने वाला पापी उस गाय की पूंछ को इस प्रकार धारण करे कि उसका बाल ऊपर की ओर रहे। फिर मिट्टी का पात्र हाथ में लेकर प्रतिदिन सात घरों में भिक्षा माँगे और अपने पापकर्म की बात कहकर लोगों को सुनाता रहे। उन्हीं सात घरों की भिक्षा में जो अन्न मिल जाय, वही खाकर रहे। ऐसा करने से वह बारह दिनों में शुद्ध हो जाता है। यदि पाप अधिक हो तो एक वर्ष तक उस व्रत का अनुष्‍ठान करे, जिससे वह अपने पाप को नष्ट कर देता है। इस प्रकार मनुष्‍यों के लिये परम उत्‍तम प्रायश्चित का विधान है। उनमें जो दान करने में समर्थ हों, उनके लिये दान की भी विधि है। यह सब प्रायश्चित विचार पूर्वक करना चाहिये। अनास्तिक पूरूषों के लिये एक गोदानमात्र ही प्रायश्चित बतलाया गया है। कुत्‍ते, सूअर, मनुष्‍य, मुर्गे और गदहे के मांस और मल-मूत्र खा लेने पर द्विज का पुन: संस्कार होना चाहिये। सोमपान करने वाला ब्राह्मण यदि किसी शराबी की गन्ध भी सूंघ ले तो वह तीन दिनों तक गरम जल पीकर रहे, फिर तीन दिन गरम दूध पीये। तीन दिन गरम दूध पीने के बाद तीन दिन तक केवल वायु पीकर रहे। इससे वह शुद्ध हो जाता है। इस प्रकार यह सनातन प्रायश्चित सब के लिये बताया गया है। ब्रह्मण के लिये इसका विशेषरूप से विधान है। अनजान में जो पाप बन जाय, उसी के लिये प्रायश्चित है।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 165 श्लोक 1-13
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 165 श्लोक 14-29
  3. जिसने अग्नि की स्थापना नहीं की है, उसे ‘अनाहिताग्नि’ कहा जाता है। तात्पर्य यह कि उक्त दक्षिणा दिये बिना उसके द्वारा की हुई अग्नि स्थापना व्यर्थ हो जाती है।
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 165 श्लोक 30-44
  5. 5.0 5.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 165 श्लोक 45-61
  6. 6.0 6.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 165 श्लोक 62-78

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भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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