नवल नंदनंदन रगद्वार आए।
तड़ित से पीत पट, काछनी कसे कटि, खौरि चदन किए मुख सुहाए।।
निरखि यौ रूप जिन, भयौ सोई मगन, मातु पितु कौ पुत्र भाव आयौ।
ब्रह्म पूरन मुनिनि, परम सुदर त्रियनि, काल कौ रूप सुभटनि जनायौ।।
पील कौ देखि हरि कह्यौ यौ बिहँसि करि, पथ तै टारि गज कौ महावत।
दियौ खटकारि उन धारि अभिमान मन, सुड तै दौरि गह्यौ ताहि आवत।।
दंत जुग बिच जुग चरन भीतर निकसि, जुग करनि पूछ कौ गह्यौ जाई।
महा करि सिंह भेटत, महा उरग कौ, महाबल गरुड़ ज्यौ गहत धाई।।
कबहुँ लै जात उत इतै ल्यावत कबहुँ, भ्रमत व्याकुल भयौ पील भारी।
गेद ज्यौ गयँद कौं पटकि हरि भूमि सौ, दंत दोउ लिए निज कर उपारी।।
भभकि कै दंत तै रुधिर धारा चली, छीट छवि बसन पर भई भारी।
केसरी चीर पर अबिर मानौ परयौ, खेलतै फागु डारयौ खिलारी।।
पील तजि प्रान कौ, गयौ निरवान कौ, सिद्ध गधर्व जै जै उचारै।
देखि लीला ललित 'सूर' के प्रभु की, नारि नर सकल तन प्रान बारै।।3059।।