- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 23 में नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर का प्रस्न
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! देवयज्ञ अथवा श्राद्ध-कर्म में जो दान दिया जाता हैं, वह कैसे पुरुषों को देने से महान फल की प्राप्ति कराने वाला होता है? मैं इस बात को जानना चाहता हूँ।
भीष्म का उत्तर
भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! जैसे किसान वर्षा की बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार जिनके घरों की स्त्रियां अपने स्वामी के खा लेने पर बचे हुए अन्न की प्रतीक्षा करती रहती है,[2] उन निर्धन ब्राह्मणों को तुम अवश्य भोजन कराओ। राजन! जो सदाचारपरायण हों, जिनकी जीविका का साधन नष्ट हो गया हो और इसीलिये भोजन न मिलने के कारण जो अत्यन्त दुर्बल हो गये हों, ऐसे लोग यदि याचक होकर दाता के पास आते हैं तो उन्हें दिया हुआ दान महान फल की प्राप्ति कराने वाला होता है। नरेश्वर! जो सदाचार के ही भक्त हैं, जिन के घर में सदाचार का ही पालन होता है, जिन्हें सदाचार का ही बल है तथा जिन्होंने सदाचार का ही आश्रय ले रखा है, वे यदि आवश्यकता पड़ने पर याचना करते हैं तो उनको दिया हुआ दान महान फल की प्राप्ति कराने वाला होता है।
फलदायक दान का वर्णन
युधिष्ठिर! चोरों और भय से पीड़ित होकर आये हुए जो याचक केवल भोजन चाहते है। उन्हें दिया हुआ दान महान फल की प्राप्ति कराने वाला होता है। जिसके मन में किसी तरह का कपट नहीं है, अत्यन्त दरिद्रता के कारण जिसके हाथ में अन्न आते ही उसके भूखे बच्चे ’मुझे दो,’ मुझे दो’ ऐसा कहकर मांगने लगते हैं; ऐसे निर्धन ब्राह्मण और उसके उन बच्चों को दिया हुआ दान महान फलदायक होता है। देश में विप्लव होने के समय जिनके धन और स्त्रियां छिन गयी हों; वे ब्राह्मण यदि धन की याचना के लिये आये तो उन्हें दिया हुआ दान महान फलदायक होता है। जो व्रत और नियम में लगे हुए ब्राह्मण वेद शास्त्रों की सम्मति के अनुसार चलते है और अपने व्रत की समाप्ति लिये धन चाहते हैं, उन्हें देने से महान फल की प्राप्ति होती है। जो पाखण्डियों के धर्म से दूर रहते हैं, जिनके पस धन का अभाव है तथा जो अन्न न मिलने के कारण दुर्बल हो गये हैं, उन को दिया हुआ दान महान फलदायक होता है। जो विद्वान पुरुष व्रतों का कारण, गुरुदक्षिणा, यज्ञ दक्षिणा तथा विवाह के लिये धन चाहते हों, उन्हें दिया हुआ दान महान फलदायक होता है। जो माता-पिता की रक्षा के लिये, स्त्री-पुत्रों के पालन तथा महान रोगों से छुटकारा पाने के लिये धन चाहते हैं, उन्हें दिया हुआ महान फलदायक होता है। जो बालक और स्त्रियां सब प्रकार के साधनों से रहित होने के कारण केवल भोजन चाहती हैं, उन्हं भोजन देकर दाता स्वर्ग में जाते है। वे नरक में नहीं पड़ते है। प्रभावशाली डाकुओं ने जिन निर्दोष मनुष्यों का सर्वस्व छीन लिया हो, अतः जो खाने के लिये अन्न चाहते हों, उन्हें दिया हुआ दान महान फलदायक होता है। जो तपस्वी और तपोनिष्ठ हैं तथा तपस्वी जनों के लिये ही भीख मांगते हैं, ऐसे याचक यदि कुछ चाहते हैं तो उन्हें दिया हुआ दान महान फलदायक होता है।
नरकगामी मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन
भरतश्रेष्ठ! किन को दान देने से महान फल की प्राप्ति होती है, यह विषय मैंने तुम्हें सुना दिया अब जिन कर्मो से मनुष्य नरक या स्वर्ग में जाते हैं, उन्हें सुनो। युधिष्ठिर! गुरु की भलाई के लिये तथा दूसरे को भय से मुक्त करने के लिये जो झूठ बोलने का अवसर आता हैं, उसे छोड़कर अन्यत्र जो झूठ बोलते हैं वे मनुष्य निश्चय ही नकर गामी होते हैं। जो दूसरों की स्त्री चुराने वाले, परायी स्त्री की सतीत्व नष्ट करने वाले तथा दूत बन कर परस्त्री को दूसरों से मिलाने वाले हैं, वे निश्चय ही नरक गामी होते हैं। जो दूसरों के धन को हड़पने वाले और नष्ट करने वाले हैं तथा दूसरों की चुगली खाने वाले हैं, उन्हें निश्चय ही नरक में गिरना पड़ता है। भरतनन्दन! जो पौंसलों, सभाओं, पुलों ओर किसी के घरों को नष्ट करने वाले हैं, वे मनुष्य निश्चय ही नरक में पड़ते हैं। जो लोग अनाथ, बूढ़ी, तरुणी, बालिका, भयभीत और तपस्विनी स्त्रियों को धोखे में डालते हैं, वे निश्चय ही नरक गामी होते हैं। भरतनन्दन! जो दूसरों की जीविका नष्ट करते , घर उजाड़ते, पति-पत्नी में विछोह डालते, मित्रों में विरोध पैदा करते और किसी का आशा भंग करते हैं, वे निश्चय ही नरक में जाते है। जो चुगली खाने वाले, कुल या धर्म की मर्यादा नष्ट करने वाले, दूसरों की जीविका पर गुजारा करने वाले तथा मित्रों द्वारा किये गये उपकार को भूला देने वाले हैं, वे निश्चय ही नरक में पड़ते हैं। जो पाखण्डी, निन्दक, धार्मिक नियमों के विरोधी तथा एक बार संन्यास लेकर फिर गृहस्थ-आश्रम में लौट आने वाले हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं। जिनका व्यवहार सबके प्रति समान नहीं है तथा जो लाभ और वृद्धि में विषम दृष्टि रखते हैं- ईमानदारी से उसका वितरण नहीं करते हैं, वे अवश्य ही नरकगामी होते हैं। जो किसी मनुष्य की परख करने में समर्थ नहीं हैं और दूत का काम करते हैं, जिनकी सदा जीव हिंसा में प्रवृति होती है, वे निश्चय ही नरक में गिरते है। जो वेतन पर रखे हुए परिश्रमी नौकर को कुछ देने की आशा देकर और देने का समय नियत करके उसके पहले ही भेद नीति के द्वारा उसे मालिक के यहाँ से निकलवा देते हैं, वे अवष्य ही नरक में जाते है। जो पितरों और देवताओं यजन-पूजन का त्याग करके अग्नि में आहुति दिये बिना तथा अतिथि, पोष्यवर्ग और स्त्री-बच्चों को अन्न दिये बिना ही भोजन कर लेते हैं, वे नि-संदेह नरकगामी होते हैं। जो वेद बेचते हैं, वेदों की निन्दा करते हैं और विक्रय के लिये ही वेदों के मंत्र लिखते हैं, वे भी निश्चय ही नरकगामी होते हैं। जो मनुष्य चारों आश्रमों और वेदों की मर्यादा से बाहर है तथा शास्त्र विरुद्ध कर्मोसे ही जीविका चलाते हैं, उन्हें निश्चय ही नरक में गिरना पड़ता है। राजन! जो (ब्राह्मण) केश, विष और दूध बेचते हैं, वे भी नरक में ही जाते है।
युधिष्ठिर! जो ब्राह्मण, गौ तथा कन्याओं के लिये हितकर कार्य में विध्न डालते हैं, वे भी अवश्य ही नरकगामी होते हैं। राजा युधिष्ठिर! जो (ब्राह्मण) हथियार बेचते और धनुष-बाण आदि शास्त्रों को बनाते हैं, वे नरकगामी होते हैं। भरतश्रेष्ठ! जो पत्थर रखकर, कांटे बिछाकर और गढे खोदकर रास्ता रोकते हैं, वे भी नरक में ही गिरते हैं। भरतभूषण! जो अध्याप कों, सेवकों तथा अपने भक्तों को बिना किसी अपराध के ही त्याग देते हैं, उन्हें भी नरक में ही गिरना पड़ता है। जो काबू में न आने वाले पशुओं का दमन करते, नाथते अथवा कटघर में बंद करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। जो राजा होकर भी प्रजा की रक्षा नहीं करते और उसकी आमदनी के छठे भागन को लगान के रूप में लूटते रहते हैं तथा जो समर्थ होने पर भी दान नहीं करते, उन्हें भी निःसंदेह नरक में जाना पड़ता है।[3] जो देने की प्रतिज्ञा करके भी नहीं देते, दरिद्रों की एवं विनयशील निर्धन श्रोत्रियों की और क्षमाशीलों की निन्दा करते हैं, वे भी अवश्य ही नरक में जाते है। जो क्षमाशील, जितेन्द्रिय तथा दीर्घकाल तक साथ रहे हुए विद्वानों को अपना काम निकल जाने के बाद त्याग देते हैं, वे नरक में गिरते है। जो बालकों, बूढों और सेवकों को दिये बिना ही पहले स्वयं भोजन कर लेते हैं, वे भी निःसंदेह नरकगामी होते हैं। भरतश्रेष्ठ! पहले के संकेत के अनुसार यहाँ नरक-गामी मनुष्यों का वर्णन किया गया है।
स्वर्गगामी मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन
अब स्वर्गलोक में जाने वालों का परिचय देता हूं, सुनो। भरतनन्दन! जिनमें पहले देवताओं पूजा की जाती है, उन समस्त कार्यों में यदि ब्राह्मण का अपमान किया जाय तो वह अपमान करने वाले के समस्त पुत्रों और पशुओं का नाश कर देता है। जो दान, तपस्या और सत्य के द्वारा धर्म का अनुष्ठान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। भारत! जो गुरुशुश्रूषा और तपस्या पूर्वक वेदाध्ययन करके प्रतिग्रह में आसक्त नहीं होते, वे लोग स्वर्गगामी होते हैं। जिनके प्रयत्न से मनुष्य भय, पाप, बाधा, दरिद्रता तथा व्याधिजनित पीड़ा से छुटकारा पा जाते हैं, वे लोग स्वर्ग में जाते है। जो क्षमावान, धीर, धर्मकार्य के लिये उद्यत रहने वाले और मांगलिक आचार से सम्पन्न हैं, वे पुरुष भी स्वर्गगामी होते हैं। जो मद, मांस, मदिरा और स्त्रीसे दूर रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते है। भारत! जो आश्रम, कुल, देश और नगर के निर्माता तथा संरक्षक हैं, वे पुरुष स्वर्ग में जाते है। जो वस्त्र, आभूषण, भोजन, पानी तथा अन्न दान करते हैं एवं दूसरों के कुटुम्ब की वृद्धि में सहायक होते हैं, वे पुरुष स्वर्गलोक में जाते है। जो सब प्रकार की हिंसाओं से अलग रहते हैं, सब कुछ सहते हैं और सबको आश्रय देते रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते है। जो जितेन्द्रिय होकर माता-पिता की सेवा करते हैं तथा भाइयों पर स्नेह रखते हैं, वे लोग स्वर्गलोक में जाते है। भारत! जो धनी, बलवान और नौजवान होकर भी अपनी इन्द्रियों को वष में रखते हैं, वे धीर पुरुष स्वर्गगामी होते हैं। जो अपराधियों के प्रति भी दया रखते हैं, जिनका स्वभाव मृदुल होता है, जो मृदुल स्वभाव वाले व्यक्तियों पर प्रेम रखते हैं तथा जिन्हें दूसरों की आराधना सेवा करने में ही सुख मिलता हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते है। जो मनुष्य सहस्रो मनुष्यों को भोजन परोसते, सहस्रों को दान देते तथा सहस्रों की रक्षा करते है, वे स्वर्गगामी होते हैं। भरतश्रेष्ठ! जो सुवर्ण, गौ, पालकी और सवारी का दान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते है।
युधिष्ठिर! जो वैवाहिक द्रव्य, दास-दासी तथा वस्त्र दान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो दूसरों के लिये आश्रम, गृह, उद्यान, कुआं, बागीचा, धर्मशाला, पौसला तथा चहार दीवारी बनवाते हैं, वे लोग स्वर्गलोक में जाते है। भरतनन्दन! जो याचकों की याचना के अनुसार घर, खेत और गांव प्रदान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते है। युधिष्ठिर! जो स्वयं ही पैदा करके रस, बीज और अन्न का दान करते हैं, वे पुरुष स्वर्गगामी होते हैं। जो किसी भी कुल में उत्पन्न हो बहुत-से पुत्रों और सौ वर्ष की आयु से युक्त होते है, दूसरों पर दया करते हैं, और क्रोध को काबू में रखते हैं, वे पुरुष स्वर्गलोक में जाते है। भारत! यह मैंने तुमसे परलोक में कल्याण करने वाले देवकार्य और पितृकार्य का वर्णन किया तथा प्राचीनकाल में ऋषियों द्वारा बतलाये हुए दानधर्म और दान की महिमा का भी निरूपण किया है।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 23 श्लोक 46-58
- ↑ अर्थात जिन के घर में बनी हुई रसोई के सिवा और अन्न का संग्रह न हो
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 23 श्लोक 59-80
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 23 श्लोक 81-103
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| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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