नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. महर्षि लोमश-शकट-भञ्जन
दैत्यराज हिरण्याक्ष का पुत्र उत्कच बहुत स्थूलकाय था और उसे अपने इस सुपुष्ट महाकाय होने का अंहकार भी बहुत था। बात चाक्षुष मन्वन्तर के प्रारम्भ की है; किंतु मेरे लिये तो कल्पों का ही काल क्षणों के समान है। मन्वन्तरों की गणना मैं कहाँ कर पाता हूँ। उत्कच मेरे आश्रम में आ गया और मदान्ध होकर उसने आश्रम-वृक्षों से अपना शरीर रगड़ना प्रारम्भ किया। उसे देह-कण्डू दूर करने के लिए वन में कहीं वृक्ष ही नहीं मिले? मेरे आश्रम के बहुत से वृक्ष उसने गिरा दिये शरीर रगड़ कर। इन वृक्षों को मैंने लगाया था, सींचा था, स्नेहपूर्वक पाला था। इनसे अवश्य मुझे राग हो गया था, तभी तो इनके गिराये जाने से मुझे रोष आ गया। मैंने शाप दे दिया- 'दुर्बुद्धि! देह का तुझे इतना गर्व हो गया है? देह-रहित हो जा!' राग-रोष दोनों दौर्बल्य हैं और दु∶ख देते हैं। वह बेचारा दैत्य तो तत्काल मेरे पदों में गिरकर रुदन करने लगा; किंतु अब शाप तो मैं दे चुका था। मैंने उसे कह दिया- 'वैवस्वत मन्वन्तर के द्वापरान्त में श्रीकृष्णचन्द्र का स्पर्श पाकर तू मुक्त हो जायगा।' स्थूल देह मैं उसे दे सकता नहीं था। देह के बन्धन से सदा को ही मुक्त कर देना श्रीहरि की अनुकम्पा पर निर्भर है। मैं उनका चरणाश्रित- उनकी ही निजजन- वत्सलता पर विश्वास करके आशीर्वाद दे सका था। मेरे लिए मन्वन्तर व्यापी काल नगण्य है; किंतु सामान्य जीव के लिए यह समय बहुत बड़ा होता है। एक ऐन्द्रियक भोगों को ही सर्वस्व मानने वाला दैत्य शरीर से-स्थूल शरीर से रहित होकर कितना दु∶खी होगा, समझ सकता हूँ। वायु-शरीरी उत्कच पर मुझे दया आती है। अब वे दीनबन्धु, अनाथ-नाथ धरा पर अवतीर्ण हो चुके हैं। मुझे अदृश्य रहकर उनके दर्शन का लाभ उठाने में कोई कठिनाई नहीं है। मेरे शाप से उत्कच वायु-शरीरी है तो उसकी विमुक्ति का प्रार्थी होकर मुझे भी अदृश्य देही के रूप में ही उपस्थित होना चाहिए। |
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