नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
14. तुंगी तायी-दुग्ध–पान
दाऊ का ही अब तक नामकरण संस्कार नहीं हुआ। उसका हो गया होता तो आज नन्दनन्दन के नामकरण का हम महोत्सव मनाते। परसों रोहिणी रानी ने कहा भी था- 'इसका नामकरण हो जाना चाहिए।' यह बात मेरे देवर नन्दराय स्वीकार नहीं कर सकते थे। एक ही घर में रहकर घर की स्वामिनी रोहिणी रानी के पुत्र को पराया बनाया जा सकता है? बड़े भाई का संस्कार नहीं हुआ तो छोटे का पहिले कैसे हो जायगा? मथुरा बड़ी नगरी है और वहाँ कंस जैसा क्रूर-कुटिल राजा है। कोई बड़ा ही कारण होगा कि वसुदेवजी ने कहला भेजा- 'रोहिणी-नन्दन के किसी संस्कार में शीघ्रता न की जाय।' अब तो जब दाऊ का नामकरण होगा, तभी इस नन्हें नीलमणि का भी होगा। अब तो इसके केवल वे आवश्यक संस्कार ही होने हैं जो दाऊ के हो चुके हैं। जिनको टाला नहीं जा सकता। मैं पूरी रात नामकरण की ही उधेड़-बुन में उस रात रह गयी और भूल ही गयी थी कि सबेरे ही मेरा यह नवयुवराज पलनेमें पौढे़गा। बड़े सबेरे मुखरा मेरे समीप आ गयी और उसने कहा- 'बड़ी रानी ने प्रार्थना की है कि आज आप शीघ्र आ जायँ और आज के उत्सव की व्यवस्था, गोपियों का सत्कार सम्हाल लें।' 'क्यों!' मैं तो चौंक ही गयी- 'बड़ी रानी आज व्यवस्था क्यों नहीं सम्हालेंगी?' 'वे आज लाल को झुलाना चाहती हैं।' मुखरा ने यह कहकर मेरे मन का भार उतार दिया। मैं तो पता नहीं क्या-क्या सोचने लगी थी। रोहिणी रानी के रहते नन्द-भवन की व्यवस्था दूसरी कोई भला क्यों सम्हालेगी; किंतु वे बड़ी हैं- हम सबकी ही सम्मान्या हैं। यह लाल उनका-उनका स्वत्व सर्वोपरि है। आज यह प्रथम बार पलने में पौढे़गा, तो उनका हृदय अवश्य उमड़ेगा। वे इसे झुलाना चाहती हैं- उनका वात्सल्य इसे सर्वप्रथम मिलना ही चाहिए। |
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