नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
84. भास्वरा भाभी-मां रोहिणी मथुरा को
'बूढ़ा दादा'- मुझे बुरा लगा पति के लिये यह सम्बोधन; किंतु पता लगा कि उनके सब सखा स्नेह से-सम्मान से उन्हें यह कहते हैं। वे अत्यन्त सीधे हैं। कुछ कहते हैं तो मुझसे भी ऐसे स्वर में कहते हैं जैसे अनुरोध कर रहे हों; लेकिन इतना कम बोलते हैं, इतना सोचकर बोलते हैं कि उनकी बात सब- मेरा पूज्य श्वसुर तक आदेश के समान स्वीकार कर लेते हैं। मुझसे ही उस समय बोले- 'तुम इस कन्हाई से संकोच न करतीं तो अच्छा होता।' मुझे हँसी आ गयी। उनके नीलसुन्दर सखा झुककर मेरे घूँघट के नीचे ऐसे देख रहे थे जैसे मैं गूँगी हूँ या नहीं, यही जानने को उत्सुक हैं। मैंने धीरे से कहा- 'तुमको मैं गूँगी लगती हूँ।' वे तो ताली बजाकर कूदने लगे। हँसने लगे- 'भाभी हंसिनी के समान कूजती है!' मेरा नाम उसी समय छोटा कर दिया उन्होंने- 'भा-भाभी' और तभी से उनके सब सखाओं के लिए मेरा यही नाम हो गया। अन्यथा बड़ों की तो मैं 'बहू लाली' हूँ। नाम तो मेरा कोई लेता नहीं है। यहाँ हमारे व्रज में सबको देना ही देना आता है। कोई अपने लिए कुछ चाहता नहीं। सब दूसरों को ही सुख-सुविधा-सम्मान देने को सचिन्त रहते हैं, लेकिन कोई यह दिखलाता नहीं। सब दिखलाते यही हैं कि वे स्वयं अपने लिए ही सब कुछ करते हैं। सबसे अद्भुत मेरे मयूर-मुकुटी देवर। सुधा-स्वाद मधुर फल लेकर आते थे और कहते थे- 'भा-भाभी आज तेरे दाँत खट्टे करूँगा। तुझे यह फल अभी खाना पड़ेगा।' मैं कितना भी संकोच करूँ वे कहाँ मानते थे। सासजी भी उनका ही साथ देतीं। कह देतीं थीं- 'बहू लाली, खाले! ऐसा दुलारा देवर संसार में बड़े भाग्य से मिलता है।' हाय! अब तो उनकी यही बातें हृदय को टूक-टूक करती हैं। मुझे उन्होंने शीघ्र अन्तरंगा बना लिया। उनके कोई सखा रूठ जायँ तो मुझसे पूछते-कहलाते। वन में क्या-क्या हुआ, सब सुनाते प्रतिदिन। मानिनी कीर्ति-कुमारी मान कर लें तो भी मुझ इस अपनी 'भा-भाभी' से सम्मति लेने आते थे। मुझसे कुछ छिपाया नहीं उन्होंने और मेरी एक भी बात कभी टाली नहीं। पुरुषों की एक दुर्बलता है कि अपनी कोई वस्तु कभी ठीक ठिकाने नहीं रख पाते। मेरे स्वामी में यह दोष अधिक है और उन देवर में तो बहुत अधिक था। लकुट, श्रृंग, पटुका, रज्जु कहाँ छोड़ी इन्होंने, यह भी स्मरण नहीं रखेंगे और समय पर न मिले तो मुझ पर खीझेंगे। मुझे भी पता लगाना पड़ता है कि ये छोड़ कहाँ आये। |
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