नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
78. मंगल-अरिष्ट-संहार
मैं युद्ध का-संघर्ष का, शक्ति का, उष्णता का, अग्नि का, रक्त का अधिष्ठाता हूँ और आप शक्ति तथा संघर्ष के बिना मंगल की आशा तो नहीं कर सकते। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने मुझे अपना अरुण वर्ण दिया है। मैं रजोगुण का स्वरूप हूँ। अतएव रजोमयी माता भूमि में मेरी भक्ति है। भूमि प्राणी को मेरी प्रसन्नता से प्राप्त होती है। मेरी माता भगवती भू देवी ही धर्म की माता है। सत्त्वगुण भी इन्हीं के वात्सल्य से पुष्ट होता है। हिमोज्वल वृष-रूप धर्म मेरे श्रद्धेय अग्रज हैं। वे जिसके साथ हैं, जिस पर सानुकूल हैं, सृष्टि के सम्पूर्ण संघर्षों में मैं युद्ध का अधिदेवता उसके साथ। अतः विजयीश्री की वरमाला सदा उसकी। श्रीहरि सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, अतः उनकी छाया ही प्रकृति में सत्त्व, रज, तमोगुण का रूप बनती है। तम की स्थूलता ही तो सत्ता है। भू देवी सत्ता स्वरूपा है। भगवान बाराह ने इनका रसातल से उद्धार किया तो उन यज्ञमूर्ति के स्पर्श से मेरे अनुज नरकासुर की उत्पत्ति हो गयी। नरक तो प्राणी पाता है देह-त्याग के पश्चात। पहिले उसका पूर्वकृत अपकर्म अरिष्ट बनकर उसे क्लेश देने आता है। अरिष्ट भी वृषभ ही है; किंतु जहाँ धर्म शान्त, उज्ज्वल वृषभ रूप है, अरिष्ट काला, घोर उग्र वृषभ है। धर्म देवता है और अरिष्ट असुर है। कलि के साक्षात रूप कंस ने अरिष्ट को अपना सेवक बना लिया। सुर भी संत्रस्त रहते थे उससे अरिष्ट जहाँ पहुँचेगा, अनिष्ट की ही तो आशंका होगी। मैं भले क्रूर ग्रह हूँ, अरिष्ट भी होता हूँ; किंतु देव हूँ। भगवती धरा का पुत्र हूँ। अपने अग्रज धर्म का अनुगामी हूँ और उनके आश्रितों के अनुकूल ही रहता हूँ; किंतु अरिष्ट असुर होकर- धरा का पुत्र होकर भी कंस का सेवक हो गया। केवल ध्वंस को अपनाया इसने। आतंक, आशंका ही सर्वत्र फैलाता फिरा। अरिष्ट अन्ततः मेरा अनुज है। नरक भी मेरा अनुज ही है। मैं दोनों को स्नेह, समर्थन, शक्ति, विजय देने वाला बना रहता; किंतु मेरी भी सीमा है। ये जब मेरी माता का ही उच्छेद करने पर उतर आवें, साक्षात श्रीहरि के ही प्रतिकूल हों तो मैं इनके साथ कुपुत्र तो नहीं बन सकता। तब मुझे पिता के पक्ष में रहना ही चाहिये और मंगल का रोष तो मृत्यु बनकर उतरता है, मिटाकर ही मानता है। मुझे कहाँ मिटाना है। ये भूभार हरण करने जो परमपुरुष पृथ्वी पर पधारे हैं, इन्होंने तो एक ओर से अपने चरणाश्रितों के लिये, अपने चारु-चरित-चिन्तकों के लिए अध, पूतना-माया, धेनुक-देहा ध्यासादि को मिटाना प्रारम्भ कर दिया है। अध, अरिष्ट, मुर-बन्धन तथा नरक को ये रहने दे सकते हैं? इनका अवतरण ही इन सबको निःशेष कर देने के लिए है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज