नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. चन्द्रावली-रास में मान भंग
वह छलिया स्वप्न के समान आया था हमारे मध्य और हम उन्मादिनी हो गयीं। हम उससे रूठने लगीं। वह तो स्वप्न के समान ही अदृश्य हो गया। अब इस फूटे कपाल को पीटने-क्रन्दन करने से क्या होना है। सब कहती हैं, सब भोली सखियाँ समझती हैं कि अपराध उनका ही है। कोई इस अधमा चञ्चला चन्द्रावली को कोसती नहीं। कोई इसे दोष नहीं देती; किंतु मैं कैसे अपने को क्षमा कर दूँ। मुझे ही तो सबसे अधिक अभिमान हो गया था। मैं ही तो बहुत बोलने वाली बन गयी थी। मैं समझने लगी थी कि मैं बोली तो मेरे वाक्यों पर, मेरे रूप पर रीझकर वे अपनी उदासीनता त्यागकर हमारे मध्य आये थे। मैं ही सबसे अधिक इतराने लगी थी। मैं ही चाहने लगी थी कि वे मेरे- केवल मेरे बनकर रहें। मैं उनके कर खींचने का दुस्साहस करने लगी थी। मैं रूठने चली थी- अरी मूर्खे, चन्द्रावली! वे कृपा करके अपना चरण स्पर्श तुझे दे देते हैं और तुझे आज श्रीराधा के समान मानिनी बनने की सूझी थी? अब मरकर भी हतभागिनी तुझे शान्ति नहीं। वे तुझे क्षमा कर दें, यह किस मुख से कहेगी उनसे? ये सखियाँ- ये श्रीराधा की सखियाँ भी दोष देतीं, झिड़कती तो तनिक शान्ति पाती मैं; किंतु ये सब इतनी सरलाएँ हैं कि सबकी सब गले लिपटकर रोती हैं। सब कहती हैं- 'हाय सखी! मेरे अपराध से ही वे रूठ कर चले गये। मुझ भाग्यहीना के अभिमान ने तुम सबको भी वञ्चिता बना दिया। मुझे सब मिलकर मारो, शाप दो! मुझे क्यों कण्ठ से लगाती हो। मैं तुम्हारे स्पर्श के योग्य नहीं। मेरा अमंगल कलुषित शरीर मत छुओ!' सुन! सुन चन्द्रावली! यह तेरा अपराध सब अपने-में आरोपित कर रही हैं अभागिनी। लेकिन अब ऐसे बैठे तो नहीं रहा जा सकता। वे कहाँ गये? किधर गये? उन्हें कौन बतलावेगा? ये अश्वत्थ, वट, पाकर, कदम्ब, अर्जुन- इतना ऊँचा सिर किये खड़े हैं। ये दूर तक देख सकते हैं। ये हम अवलाओं पर कृपा क्यों नहीं करते? ये पुकारने पर भी एक पत्र तक हिलाकर संकेत करते नहीं दीखते। एक पक्षी तक उस हमारे हृदय धन की ओर नहीं उड़ाते। ये वृन्दावन के तरु जड़ तो नहीं हैं, निष्करुण भी नहीं हैं; किंतु ये तपस्वी हैं। मौनव्रती हैं। यह भी तो सम्भव है कि वह निष्ठुर इनसे भी छिप गया हो। वह झुककर इनके नीचे से निकल गया हो। |
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