नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
72. कामदेव-रास का प्रारम्भ
भगवान भूतनाथ ने मुझे भस्म कर दिया; किंतु यह तो मेरी पराजय नहीं थी। मैं भले भस्म हुआ, परन्तु मेरे कनिष्ठ भ्राता क्रोध ने उन्हें कम्पित करके उनका दीर्घकालीन तप ध्वस्त कर दिया। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझे सम्यक पराजय प्राप्त हुई धर्म-नन्दन बने बदरिकाश्रम में तपोनिरत नर-नारायण से; लेकिन मन्मथ तो उन श्रीहरि का ही अंश है। अंश अपने अंशी से न्यून तो रहेगा ही। उन श्रीहरि के पदाश्रितों से भी मदन पराभूत हो जाया करता है। उन आनन्दघन का चरणाश्रय लेकर ही देवर्षि नारद ने तथा देवर्षि जैसे दूसरों ने मुझ मकरध्वज को पराभूत किया है। मैं इसे पराजय नहीं मानता; क्योंकि मेरे अंशी के आश्रम में जाकर बैठ जाना मुझसे अभय कर देता है, यह तो सहज स्वाभाविक है। भगवान शिव ने मुझे भस्म करके अनंग बना दिया। यह मेरे सामर्थ्य का वर्धक ही बना। मैं अदृश्य रहकर अधिक आक्रामक हो गया। उस दिन देवर्षि ने मुझे देवलोक में देखा और हँस पड़े। बोले- 'सुमन सुकुमार देवता! अब इस नन्दन कानन में ही बने रहना। धरा की ओर देखने की धृष्टता मत करना।' 'पृथ्वी पर कोई अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया है?' मैं उत्तेजित हो गया था- 'कोई पुरारि से भी प्रबल तपस्वी पैदा हो गया वहाँ? सृष्टिकर्त्ता अपने से अधिक समर्थ संयमी के सृजन में सफल हो गये?' 'एक गोप-कुमार आ गया है भारत-धरा पर वृन्दावन में।' देवर्षि ने व्यंग किया- 'वह दर्पितों की बहुत दुर्गति करता है। कहीं भूलकर उधर मत भटक जाना। दुर्मद-दलन का वह व्रती- उससे दूर ही रहो, उसी में दैव को सानुकूल समझो! दुःख पाओगे यदि उधर गये।' 'गोपकुमार? कितने युगों से वह तपो-निरत है?' मैं अहंकार से उद्दीप्त पूछ बैठा। 'वह तप नहीं करता। गायें चराता है और व्रज की बालिकाओं से परिहास भी कर लेता है।' देवर्षि का व्यंग मैंने समझा नहीं। वे चले गये यह कहकर- 'तुम्हारे सम्पूर्ण पौरुष को पराजित करने का अच्छा अभ्यास है उसे।' मुझे यह असह्य हो गया। पुष्पधन्वा को कोई गोपकुमार पराजित करेगा? वह भी कोई तपस्वी नहीं, बालक और यदि वह बालिकाओं से परिहास करता है तो मेरे विकार उसमें विद्यमान हैं, यह तो पूर्व निश्चित हो गया। मैं उसे देखूँगा। किसी मानव-कुमार को पराजित करने के लिये केवल मेरा धनुष पर्याप्त है। सहायकों को साथ लेना अनावश्यक लगा मुझे। वसन्त, मलय-मारुत, अप्सरायें आदि मैंने साथ नहीं लीं। |
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