नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
71. श्रीकृष्ण-श्रीराधा-विवाह
मैं एक दृष्टि देख नहीं सका- भर-नेत्र इनकी सम्पूर्ण शोभा के दर्शन का भिक्षुक ही हूँ और रहूँगा। भले कोई कहे कि हम अनादि दम्पत्ति हैं; किंतु कहाँ- पलभर भी तो नहीं लगता मुझे और दृष्टि इनके जिस श्रीअंग पर जाती है, वहीं रह जाती है। श्रीराधा की सम्पूर्ण मुखश्री भी मैंने कहाँ देखी है और ये संकोचमयी सब देकर भी ऐसी रहती है जैसे कृष्ण ही कृपा करता हो। कृपा करके पाद-पद्मों से प्राप्त न हो, कृष्ण तो कंगाल है। कृष्ण में कृपा है, प्रेम है, शक्ति है, ऐश्वर्य है, वह सब इनका प्रसाद! ये अपनाये हैं, अतः कृष्ण पुरुषोत्तम है। आज हमारा विवाह हुआ है और अब इन श्रीकीर्तिकुमारी की कृपा से मुझे इनका साहचर्य सुलभ हुआ है। मैंने इनके चारु चरणों की सन्निधि प्राप्त की है। यह हमारा निकुञ्ज- आज का मधु-मिलन नित्य रहेगा, पर इनके इन प्रफुल्ल पद्म-पादों की यह प्राप्ति- ये समीप रहें, सम्मुख रहें, इससे अधिक कुछ ईप्सित नहीं मेरा। आज सायंकाल सखाओं के साथ क्रीड़ा में बिलम्ब हो गया। बाबा व्याकुल होकर स्वयं वन में आ गये हम सब तो भाण्डीर वट के समीप खेलने में लगे थे। गौयें कहाँ किधर चरते निकल गयी थीं, हममें-से किसी ने देखा ही नहीं था। बाबा गोपों को लेकर न आये होते तो मुझे- सब सखाओं को बहुत भटकना पड़ता गायों को ढूँढ़ने। बाबा ने तो चाहा था कि मैं सखाओं के साथ भवन चला जाऊँ; किंतु मैं बाबा को छोड़कर नहीं गया। दाऊ दादा को बाबा ने सब बालकों के साथ भेज दिया। उन्होंने कहा- 'सूर्यास्त होने वाला है। तुम सब घर चलो और कलेऊ करो। दिन भर के भूखे थके हो सब। गोपों के साथ गायें लेकर मैं आता हूँ।' दाऊ दादा बाबा की बात मान गया। वह सखाओं को लेकर चला गया। मैं बाबा के पैरों से लिपटा तो उन्होंने मुझे कन्धे पर बैठा लिया। अब बाबा के कन्धे से उतरकर पैर-पैर घर मैं क्यों जाता। मैंने कह दिया- 'मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।' बाबा मुझे कन्धे पर लिये-लिये वन में कहाँ भटकते। वे मुझे गोद में लेकर भाण्डीर वट के नीचे बैठ गये और गोपों को भेज दिया गायों को घेर लाने के लिये। कोई लीला करनी हो तो उसे अपूर्ण करना अच्छा नहीं। बाबा या मैया समीप होती हैं तो मैं सब भूल जाता हूँ। मुझमें केवल शैशव शेष रहता है। भला कोई माता-पिता के सम्मुख भी वृद्धों के समान बुद्धिमान बनता है। |
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