नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
68. जलाधिप वरुण-दिव्य-दर्शन
वरुण जलचरों का अधिपति-सबसे बड़ा जलचल मात्र माना जाता यदि रमा सिन्धु-सुता न हो गयी होतीं। उसके सम्बन्ध से सुर सम्मान करते हैं मेरा, शशांक मुझे पिता कहकर सम्बोधित करते हैं और शेषशायी भी सस्मित सिर झुका देते हैं। मुझ वरुण को जलाधिप होने के कारण श्रीहरि को जमाता कहने का स्वत्व प्राप्त हो गया है। बहुत विवादास्पद है श्रीनारायण से मेरा यह सम्बन्ध। वे क्षीरोदधिशायी हों अथवा कारणार्णवशायी; किंतु प्राकृत समुद्र तो उनकी सन्निधि पाता नहीं और वरुण तो केवल प्राकृत उदधि का अधिष्ठाता है। कुशल यह है कि उन रमाकान्त को तथ्यान्वेषण का व्यसन नहीं है। प्राकृत सागर उनके आवास का ही प्रतिफलन है, इतना पर्याप्त है वरुण के लिये पद्मजा को पुत्री मानने को और उसके पति केवल भावग्राही हैं। उस भाव के औचित्य को नहीं, उसकी गम्भीरता को ही वे देखते हैं। मैं उनकी ही अनुकम्पा मानता हूँ कि मुझे सर्वेश्वरेश्वर श्रीनन्दनन्दन के स्वागत का सौभाग्य प्राप्त हो गया। अन्यथा मेरे अनुचर ने तो अपराध कर ही लिया था। अनुचर का अपराध मेरा नहीं है, मैं किस मुख से कहता; किंतु करुणार्णव कृष्णचन्द्र को क्रोध करना कहाँ आता है। वे तो केवल अपनाना जानते हैं। व्रजवासी स्वयं हम सब लोकपालों के सम्मान्य हैं। उनकी पदधूलि भुवन को पवित्र करती है; पर उनके स्वभाव में, आचरण में भागवत धर्म आश्रय नहीं पावेगा तो उसका प्रतिपालन कहाँ होगा। जगत के जीव फिर किन से भागवत धर्म का आदर्श ग्रहण करेंगे। प्रबोधिनी एकादशी[1] को व्रज के पशु तक व्रत करते हैं। उपासना-अर्चा एवं हरिनाम-गायन का दिवस है यह व्रज में। दिनभर भगवान नारायण की अर्चा होती रही। मैं वहाँ कलशाधिप के रूप में बना रहा, मुझे भी पूजा प्राप्त हुई। सम्पूर्ण रात्रि व्रज के समस्त नर-नारी नाम-कीर्तन में तन्मय रहे, मैं स्वयं इसका साक्षी रहा। द्वादशी सूर्योदय के पश्चात् अल्प थी और उसी में व्रत-पारण आवश्यक होता है। उससे पूर्व व्रजराज को स्नान करके अपना सब आह्निक कृत्य समाप्त करना था। गो-पूजन करके गोदुग्ध से शालग्राम को स्नान कराना था स्वयं गोदोहन करके। विप्रों का पूजन करके उन्हें दक्षिणा देकर सन्तुष्ट करना था। हम सुरों का विसर्जन करना था। इतना सब करके तब वे पारण कर सकते थे। स्वाभाविक था कि प्रभात में शीघ्र स्नान वे करना चाहते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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