नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
66. देवराज इन्द्र-गोविन्दाभिषेक
यह औपचारिकता भी आज प्रायः समाप्त हो गयी। पुरुषोत्तम ने अपने कर पर पर्वत प्रतिष्ठित करके प्रत्यक्ष कर दिया कि क्रिया शक्ति के भी वास्तविक अधिपति वे ही हैं। श्रुति उन्हीं का इन्द्र नाम से स्तवन करती है। मैं मोहवश ही उसे अपनी स्तुति मानता रहा। इन्द्र का लोकपाल पद क्या, जब मेरे प्रलय-पयोदों के पास भी पानी की बूँद तक नहीं और न उसे पाने की कोई प्रत्याशा है। वर्षा से पृथ्वी बीजों को अंकुरित करती है, अन्न होता है तब अन्न से यज्ञ सम्पन्न होता है। जो जल-वृष्टि कर सकेगा, यज्ञ का स्वाहाकार उसका स्वत्व होगा। अब उसमें इन्द्र का क्या रहा? और जब इन्द्र यज्ञाहुति से ही वञ्चित हो गया, सुर इसे अपना अधिपति स्वीकार करेंगे? पृथ्वी के प्राणियों की चिंता मुझ विलासी ने कभी की है कि आज मैं उससे व्यग्र बनूँगा। पृथ्वी पर तो स्वयं अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्डों के प्रतिपालक पुरुषोत्तम विद्यमान हैं। उसके अंशावतार ऋषभदेवजी के समय भी मैंने रूठकर वृष्टि बन्द कर दी थी तो क्या बिगड़ा था वहाँ? मेरी कल्पना थी कि प्राणी अकाल से मरने लगेंगे तो मेरी स्तुति करेंगे; किंतु भगवान ऋषभदेव ने अपने योग-बल से वृष्टि कर ली। मुझे अपनी कन्या जयन्ती देकर उन्हें जमाता बनाना पड़ा। अपनी अज्ञता के कारण मैं एक बार और भी तो अकाल उत्पन्न कर चुका हूँ। भगवती आद्या ने अँगूठा दिखा दिया- 'पृथ्वी को वर्षा की कोई आवश्यकता नहीं!' वे शाकम्भरी बन गयीं और अन्न, फल शाक ही सीधे उनके शरीर से पूरी पृथ्वी पर बरसने लगे। उनके पादपद्मों को पकड़कर मैं किसी प्रकार अपने पद की प्रतिष्ठा बचा सका। वे अखिलात्मिका आद्या श्रीकृष्णचन्द्र की अनुजा हैं इस बार। पुरुषोत्तम प्रभु स्वयं समर्थ हैं और केवल संकेत कर दें तो पानी कहीं गया तो है नहीं, भगवान धूर्जटि के जटाओं में ही तो है। संकेत पाते ही वे पिनाकपणि जटा झाड़ेंगे और पृथ्वी पानी से परिसिक्त हो जायगी। पुरुषोत्तम हैं पृथ्वी पर तो वहाँ सब प्राणी पूर्ण निश्चिन्त-निर्भय हैं। मुझ इन्द्र की वहाँ किसी को क्यों पड़े? मुझे अपनी पड़ी है। मैं अमरावती जाऊँ तो मेरा सुर सम्मान करेंगे अथवा उपहास? मैं जलहीन होकर अब किस बात का लोकपाल हूँ कि लोकपालों के साथ बैठ सकूँ। वरुण वैसे भी मुझसे सदा स्पर्धा रखते रहे हैं। वे असुरों के स्वीकृत सम्राट हैं और अब भी उनका ऐश्वर्य अक्षुण्ण है। उनके सागरों में अनन्त नीर है। कुबेर को भगवान महेश्वर भाई मानते हैं। अब वे वैश्रवण मुझे क्यों मानें? श्रीकृष्ण को सगी अनुजा विवाह ने के लिये उत्कण्ठित यम अपना काल-दण्ड उठाये इन्द्र को अपने नरकों में फेंकने जब तक नहीं आ जाते, तभी तक मैं यहाँ भी अवस्थित हूँ। वायु दिति-पुत्र हैं। माता ने जिनकी उपासना के बल पर उन्हें देवता बना पाया, उन श्रीहरि के वे होंगे या इन्द्र का साथ देंगे? अग्निदेव मुझसे अप्रसन्न हैं ही। उन्हें अजीर्ण हुआ है, खांडव वन भस्म कर पावें तब स्वस्थ हों। उनके इस उद्योग में मैं बाधक बनता रहा हूँ। मुझे पदच्युत देखकर वे प्रसन्न होंगे। कोई तो अब मुझे अपना साध देने वाला दीखता नहीं है। |
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