नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
64. बहिन अजया-गोवर्धन-पूजन
मेरे सब भैया मुझे बहुत-बहुत प्यार करते हैं। वन से लौटते हैं तो मेरे लिये ढेर सारी वस्तुएँ ले आते हैं। मैं गाँव से बाहर तक दौड़ जाती हूँ, जब सबको आना होता है। दिनभर-दिन बहुत बड़े होते हैं, बहुत मनहूस, बड़ी कठिनाई से बिताती हूँ। कन्हैया भैया दौड़कर मुझे लिपटा लेता है और सब एक साथ मुझे सजाने में जुट जाते हैं। 'अजया! तू देवी है। हम सब तेरी पूजा करते हैं।' कन्हैया भैया की भाँति कोई कह देता है। हाँ-देवी तो हूँ; किंतु छोटी-सी। मेरे इतने भैया सब देवता हैं और सब मुझसे बड़े हैं। मैं यह बात कहती हूँ तो सब-के-सब हँसते हैं। ये सब भी मुझे कोई काम नहीं करने देते और मैया तो न गोबर छूने देती, न बर्तन। जो देखो वही कहता है- 'अजया! तेरे ये छोटे-छोटे कोमल हाथ काम करने को नहीं बने हैं।' दाऊ दादा कहता है- 'अजया! तू कुछ तो खाया कर बहिन! चन्द्रमा की किरण जैसी पतली और कोमल है।' कितना तो खाती हूँ। सब तो मुझे खिलाते ही हैं और मैं कोमल-दुर्बल तो नहीं हूँ। तोक के बराबर दौड़ लेती हूँ। मैया मुझे ही क्यों कहती है- 'यह बहुत चंचल है!' तोक को, अंशु को तो कहती नहीं है। 'माँ! मेरी बहिन को कुछ कहा मत कर!' कन्हैया भैया ने कल मेरी मैया को मना किया। 'यह लड़की है लाल! किसी गोप के ही घर जाना है इसे।' माँ हँसी- 'तू ही कल कहेगा कि इसकी सगाई करो।' 'मैं अपनी बहिन किसी अच्छे राजा को विवाह दूँगा!' मुझे मैया और कन्हैया भैया दोनों की बात बहुत बुरी लगी। लोगों को बस यही एक बात ही आती है क्या? लेकिन एक बात अच्छी हो गयी। कन्हैया भैया ने बहुत सारे विवाह करने की बात मान ली। मेरी बात भैया कभी टालता नहीं। बहुत-सी भाभियाँ मेरे लिये लावेगा। कितना आनन्द आवेगा! 'तू पहिले विवाह कर! सब अपने सखाओं के कर।' मैंने रूठकर कहा था क्रोध से। 'कर लूँगा।' कन्हैया भैया ने कहा तो मैया हँस गयी। |
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