नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
60. देवर्षि नारद-धेनुक-ध्वंस
दैत्यराज बलि का पुत्र साहसिक अपने लोक सुतल से पृथ्वी पर आया। वह गन्धमादन पर पहुँचा तो अप्सरा तिलोत्तमा भी वहाँ आयी थी। दोनों का पूर्व परिचय था। दोनों मिले तो परस्पर हास-परिहास प्रारम्भ हो गया। दानों खिलखिलाकर हँसने लगे। दैत्य तो भारी अट्टहास करने का अभ्यासी था। इन्होंने ध्यान ही नहीं दिया कि महर्षि दुर्वासा समीप ही ध्यानस्थ बैठे हैं। 'तुम दोनों मूर्ख हो!' ध्यान में बाधा पड़ने पर महर्षि ने क्रोधपूर्वक देखकर शाप दिया- 'तू गधे के समान उच्चस्वर से शब्द करता है, अतः गधा हो जा! यह अप्सरा होकर असुर के साथ क्रीड़ा करती है, अतः आसुर योनि में जायगी।' दोनों ने शाप सुना तो व्याकुल होकर महर्षि के चरण पकड़ लिये। दुर्वासाजी ने शापोद्धार किया- 'अप्सरा तेरे दैत्य-कुल में ही उत्पन्न होगी। तेरे साथ सटी खड़ी है, अतः तेरे भार्इ बाण की पुत्री बनेगी और श्रीवासुदेव के पौत्र का वरण करके पवित्र हो जायगी। तू भगवान संकर्षण के करों से मरकर उनका नित्यधाम प्राप्त करेगा।' देहाध्यास- शरीर और शरीर के नाम को ही अपना सब कुछ मानकर इसी के पीछे पड़े रहना, इसी के लिये समस्त श्रम समर्पित करते जाना अज्ञान है। यह गर्दभत्व मनुष्यों को खा लेता है। मनुष्य-जीवन ही इसके मोह में नष्ट हो जाता है। यह तो मरे तब जब श्रीकृष्ण के सखा- श्रीहरि के जन कृपा करें और उनके अनुग्रह से आचार्य की शरण-ग्रहण की जाय। गुरुकृपा के बिना कहीं देहाध्यास मिटा है। निखिल जीवाचार्य संकर्षण मारें तब धेनुक मरे। यह आधिदैवत धेनुक असुर व्रज में- वृन्दावन के समीप बस गया था तालवन में। उसने उस ओर आने वाले मनुष्यों-पशुओं का इतना आहार किया कि उधर से निकलना मनुष्यों का असम्भव हो गया। पूरे परिवार के साथ यह असुर गर्दभ वहाँ बस गया था। ये असुर तृण तो चर नहीं सकते थे। अपने वन से बाहर तक धावा करते थे। तालवन में मानव तथा पशुओं के कंकाल पड़े थे स्थान-स्थान पर। केवल पक्षी ही प्रवेश पाते थे वहाँ। मैं अब ब्रह्मलोक में भी दो घड़ी ही रुकता हूँ। वहाँ से चलता हूँ तो मेरे पद स्वयं मुझे व्रज में पहुँचा देते हैं। पर्यटन करते रहना मुझ परिव्राजक की प्रकृति है और अब इन दिनों यह पर्यटन प्रायः व्रज तक परिमित हो गया है; क्योंकि मेरे भुवनमोहन आराध्य की आनन्द-क्रीड़ा यहाँ चलती रहती है। नारद जिनके गुण-गान का व्यसनी है, मेरी वीणा जिनके भुवन-पावन यश की झंकार से ही झंकृत रहती है, वे मयूर-मुकुटी वृन्दावनबिहारी बने हैं तो नारद का अन्यत्र प्रयोजन क्या? केवल अन्तरिक्ष में अदृश्य रहना पड़ता है मुझे, जिससे इनके बाल-विनोद में बाधा न बनूँ। |
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