नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
39. उपनन्द ताऊ-गोकुलत्याग का प्रस्ताव
मैं सब भार्इयों में बड़ा हूँ, अत: सबकी-ब्रज की और व्रजराज की भी चिन्ता मुझे ही करनी है। मैं उसी दिन चौंक गया जब नन्द पौरि पर प्रतिष्ठित यमलार्जुन के पेड़ गिर पड़े। न अन्धड़, न चक्रवात और दोनों वृक्ष समूल उखड़कर तब गिरे, जब हमारा सर्वस्व श्याम उनके मध्य में था। श्रीनारायण ने रक्षा की- वे सदा उसकी रक्षा कर लेते हैं। वे दोनों विशाल दिव्य-वृक्ष तो महर्षि शाण्डिल्य के आदेशानुसार हमारे गोष्ठ में हमारे पिता ने लगाये थे। गोपियाँ उनकी पूजा करती थीं। वे गोष्ठ के रक्षक देवता थे। उनके गिरने के कारण पर गोपों ने कम ध्यान दिया। हमारा कन्हाई सुरक्षित हमें मिल गया और हम सबको इन्द्रयाग की शीघ्रता थी, अत: उस समय मैं भी अधिक सोच नहीं सका। बालकों ने बतलाया था कि उन दोनों वृक्षों के मूल से दो देवता निकले थे और वे आकाश में जाकर अदृश्य हो गये थे। शिशु अबोध थे, वे असत्य बनाकर नहीं बोल सकते। उनके द्वारा प्राप्त यह सूचना बहुत महत्त्व की है, इस पर मेरा ध्यान रात्रि में गया। मुझे रात्रि में निद्रा नहीं आयी। वे दोनों तरु दिव्य थे। देवता तो थे ही। उनकी पूजा से गोपियों की कामनाएँ पूर्ण होती थीं। गोष्ठ के रक्षक वे गोकुल के अधिदेवता गोकुल को छोड़ गये। वे स्वयं त्याग गये यह स्थान। वृक्षों के गिरने का दूसरा कारण हो नहीं सकता। वे देवताओं के आवास थे। देवता जाने लगे तो उनको गिरा गये। जब किसी गृह या ग्राम के अधिदेवता उसका त्याग कर देते हैं तो वह प्राणहीन शव के समान अपवित्र-अंमगल बन जाता है। वह आवास के अयोग्य हो जाता है। उसका शीघ्र त्याग कर देना चहिये; क्योंकि जैसे शव सड़ने लगता है, ऐसे ही अधिदेवता से त्यक्त स्थान उत्पातों का आवास बन जाता है। उसे उजड़ जाने से बचाया नहीं जा सकता। वहाँ बसे रहने का प्रयत्न करने वाले अशान्ति, कष्ट ही पाते हैं और स्थान-त्याग को विवश होते हैं। गोकुल के अधिदेवताओं ने इसे त्याग दिया तो अब यहाँ शीघ्र उत्पात होने लगेंगे। यह अब रहने योग्य नहीं रहा। |
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