नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. विप्रर्षि कण्व
मैं पहिले से जानता था कि इस अष्टाविंशति द्वापरान्त में मेरे आराध्य धरा पर अवतीर्ण होने वाले हैं। वे अतसी-कुसुम-श्याम-कौस्तुभ कण्ठ, श्रीवत्सवक्ष। प्रभु मुझ पर अनुग्रह करके शिशु-विग्रह में मेरे द्वारा अर्पित नैवेद्य स्वीकार करने स्वयं पधारे और मैं अज्ञानी उनकी इस असीम कृपा का, उनका और उनके प्रसाद का तिरस्कार करता रहा। वे अनन्त करुणा-सागर, क्षमासिंधु मुझे क्षमा करते रहे। अपने अज्ञ जनों के अपराध तो वे सदा ही क्षमा करते हैं; किंतु मैं तो उनके प्रत्यक्ष सम्मुख होने पर भी उनकी अवज्ञा करता रहा। वे अपनी पहिचान स्वयं न करावें तो उन्हें कोई भी पहिचान नहीं सकता। उन अकारण कृपालु ने ही मुझे सावधान किया, मुझे स्पष्ट सूचित किया। मुझ जैसे अनधिकारी को भी अपनाया! अन्यथा मैं तो उनके जनों का-भक्तापराध करके पतित हो चुका था। भगवत्प्रसाद का तथा भगवज्ज़नों का अपमान कर लिया था मैंने अज्ञानवश अपनी पवित्रता के उन्माद में। ऐसा असह्य अपराध भी उन दयासिन्धु ने मेरा नहीं देखा। आज मैं अनुभव करता हूँ कि सृष्टिकर्त्ता ने मुझे कितना बड़ा सौभाग्य प्रदान किया था गोप-प्रमुख सुमुख का पुरोहित बनाकर। मैंने अपने अपूर्ण पाण्डित्य के कारण उसे प्रतिग्रह का हेतु मानकर त्याग दिया। पुत्र को वह दायित्व देकर कानन में चला आया। मेरा यह एकान्त, यह किञ्चत आराधना का प्रयास किस गणना में था। सृष्टिकर्ता के साक्षात मानस-पुत्र महामहर्षियों की युग-युग की उग्र तपस्या, अनवरत उपासना भी जिनको सन्तुष्ट नहीं कर पाती, किसी भी प्राणी की कैसी भी साधना, कितने भी दार्घकाल तक की गयी हो, सर्वेश्वर के साक्षात्कार का मूल्य तो नहीं बन सकती। वे अनन्त प्रेमार्णव स्वयं ही प्रसन्न होकर आवें, तभी उन्हें पाया जा सकता है। मेरा पुण्य- मेरा जन्म-जन्म का पुण्योदय इतना प्रबल था कि उसने मुझे इस एकान्त में ही सदा सीमित नहीं रहने दिया। मैं तो इसे अपना उत्कट वैराग्य मान बैठा था कि कहीं जाने, किसी से भी मिलने की मन में कोई रुचि नहीं थी। अपने इस अरण्य के अन्तर में स्थित उटज में मैं परम सन्तुष्ट था। जनपद में जाना किसी का अकस्मात मिल जाना मुझे विक्षेप ही लगता था; किंतु मेरा यह प्रबल पुण्य मुझे यहाँ बैठने नहीं देता था। चार-पाँच वर्षों तक एक बार गोकुल जाकर नन्दराय का अतिथि होने का वह मुझे उत्सुक बना देता था। |
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