नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
27. वृषभानु बाबा-सगाई
हमारे दोनों कुल तो कहने को दो हैं। दोनों पिता परस्पर अभिन्न मित्र थे और हम दोनों तो शैशव से गोकुल तथा वृहत्सानु दोनों को अपना गृह मानना सीख गये हैं। दोनों साथ-साथ खेले, गुरुगृह में साथ रहे। नन्दरायजी मुझसे आयु में कुछ मास ज्येष्ठ हैं। मैं बड़े भाई के समान उनका सम्मान शैशव से करता हूँ और वे मुझ पर स्नेह रखते हैं। मेरे परिणय की चिंता पिता से भी अधिक उन्हें थी। उन्होंने ही मेरे लिए कन्या देखी और कान्यकुब्ज-नरेश से उसको मेरे लिये माँगा। जब उनको व्रजराज-पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए पगड़ी बँधी, पिता ने मुझे प्रसन्न कर दिया उनके दक्षिण पार्श्व में खड़े होने को कहकर। मुझे बहुत अटपटा लगता था कि गोकुल के व्रजराज को दधि का उपहार लेकर बरसाने के स्वामी के सम्मुख आना पड़ता था और अपने पद की स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती थी। पिता ने इस परम्परा को तोड़ा न होता तो मैं अवश्य तोड़ देता। हम दोनों के व्रज दो क्यों रहें? जो वय में ज्येष्ठ है- उसी को ज्येष्ठत्व का सम्मान क्यों न दे दिया जाय? व्रजेश्वर हुए नन्दरायजी और पिता ने व्रजेश्वर के प्रथम सम्मान का अधिकार वृहत्सानुपुर के स्वामी का स्वत्व बना दिया। मेरा स्वत्व तो इससे बहुत बड़ा है। व्रजेश्वर कोई महत्व का कार्य मुझसे पूछे बिना करते नहीं। वे तो ऐसा व्यवहार करते हैं कि मानो मेरी सम्मति, आदेश हो उनके लिए। अनेक बार मुझे इससे बहुत संकुचित होना पड़ता है। मेरे बड़ा कुमार हुआ, तब तक कोई बात नहीं थी; किंतु पत्नी की गोद में छोटे पुत्र के साथ अयोनिजा वह लाली स्वत: आ बैठी। वह आयी और जहाँ मेरे आनन्द की सीमा नहीं थी, वहीं मुझे चिन्ता भी कम नहीं थी। कन्या अपने जन्म के साथ पिता के लिए एक चिन्ता लाती है- कन्या के योग्य सम्बन्ध की चिंता और हम गोपों में तो यह चिंता बहुत शीघ्र सिर पर चढ़ती है; क्योंकि सुविधा हो तो हम सम्बन्ध शिशु के जन्म से भी पूर्व निश्चित कर लेते हैं। मैं हृदय पकड़कर ही बैठ गया- 'यह आयी और नन्दराय के कोई कुमार नहीं है? मैं कहाँ करूँगा इसका सम्बन्ध? दूसरा तो मुझे अपने योग्य सम्बन्ध करने योग्य कोई दीखता ही नहीं।' |
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