नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. महर्षि दुर्वासा-तृणावर्त त्राण
पाण्ड्य नरेश सहस्राक्ष विष्णु-भक्त था, सद्गुणी था, धर्मात्मा था; किंतु प्रमत्त होकर, रेवा[1] में स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। मैं वहाँ पहुँचा तो इसने मुझे देखा ही नहीं। कोई नारियों के साथ हास-परिहास में इतना असावधान हो कि अभ्युत्थान देने योग्य पुरुषों के आगमन का ही उसे ध्यान न रह जाय, यह राजसिकता तो आसुर भाव ही है, अत: मैंने शाप दे दिया- 'जब तुझे आसुर भाव ही रुचते हैं तो असुर हो जा!' शाप सुनकर बहुत दु:खी हो गया। मेरे पदों पर गिरकर गिड़गिड़ाने लगा। मैंने कह दिया- 'तू जल में वात्याचक्र के समान बहुत संक्षोभ कर रहा था, अत: वात्याचक्रों का ही अधिपति रहेगा और व्रज में परम-पुरुष के स्पर्श से असुर देह से मुक्त हो जायगा।' सहस्राक्ष ने स्त्रियों के साथ वहीं अग्नि में प्रवेश करके शरीर त्याग दिया। मेरे शाप के कारण असुर योनि मिली उसे। अब वह तृणावर्त था- बवण्डरों का अधिपति। कंस से प्रीति कर ली है। रहने लगा है मथुरा; किंतु प्रधान भ्रमण-भूमि तो इसकी मरुस्थल है। यह निदाघकाल है। तृणावर्त का बल चरम सीमा पर था। आषाढ़ के इस मध्योत्तर काल में। मुझे नन्दनन्दन से तृणावर्त को स्पर्श-प्रदान करके उसे आसुर देह से मुक्त करने की प्रार्थना नहीं करनी थी। यह काम तो बहुत पहिले मेरे स्वामी- मेरे स्वरूप भगवान सदाशिव तब कर चुके जब वे गोकुल इन नन्दनन्दन का साक्षात्कार करने आये थे। उन्होंने मन में स्मरण कर लिया मेरा शापानुग्रह और इन नन्दतनय ने समझ लिया, इतना पर्याप्त था। मैं तो अदृश्य इसलिये आ गया कि इन भुवन-सुन्दर की लीला देख लूँ। जिसे शाप देकर असुर बना दिया, उसके उद्धार का साक्षी हो जाऊँ। कंस बहुत उद्विग्न है। वह यशोदा-नन्दन की आयु इस प्रकार गणना करता रहता है कि माता भी नहीं करेगी। कह रहा था- 'वह लगभग एक वर्ष का होने को आ गया। चलने लगा, बोलने लगा। कुछ करना पड़ेगा- अवश्य कुछ करना पड़ेगा मुझे। पूतना दृश्य थी और उत्कच[2] अदृश्य था। दोनों असफल हो गये। अब कोई इनके मध्य दृश्यादृश्य? तृणावर्त है तो ऐसी ही।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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