विरह-पदावली -सूरदास
(58) (सूरदास जी के शब्दों में यशोदा जी कह रही हैं-) ‘नन्दजी! श्यामसुन्दर ने तुमसे (व्रज आते समय) क्या कहा? तुम्हारा हृदय बार-बार मोहन की निर्दयता भरी बातें सुन-सुनकर कैसे रह गया (फट क्यों नहीं गया)? उनका प्रेम छोड़कर घर को क्यों लौट पड़े, क्यों न दौड़कर उनके चरण पकड़ लिये? अरे! तुम्हारा वज्र का बना हृदय (उस समय) फट नहीं गया, कैसे यह वेदना सहन की गयी?’ मोहन की बातों का स्मरण करके (यशोदा माता के) नेत्रों से अश्रु बहने लगे, शरीर की सुधि नहीं रह गयी और (उनकी) देह ऐसी क्षीण हो गयी (मूर्च्छित होकर गिर पड़ी) मानो सर्प ने काट लिया हो। (फिर बोलीं-तुम) उन्हें (मथुरा) छोड़कर गोकुल किस लिये आये, दूध-दही खाने? (अरे! महाराज) दशरथ के समान तुमने अपने प्राण (उसी समय) क्यों न छोड़ दिये, जिससे जीवन सार्थक हो जाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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