धेनुकासुर वध

धेनुकासुर का वध करते कृष्ण और बलराम

धेनुकासुर अथवा धेनुका महाभारतकालीन एक असुर था, जिसका वध बलराम ने अपनी बाल अवस्था में किया था। जब कृष्ण तथा बलराम अपने सखाओं के साथ ताड़ के वन में फलों को खाने गये, तब असुर धेनुकासुर ने गधे के रूप में उन पर हमला किया। बलराम ने उसके पैर पकड़कर और घुमाकर पेड़ पर पटक दिया, जिससे प्राण निकल गये।

कथा

वृंदावन में रहते हुए बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश कर लिया था। बलराम और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोप बालक थे, जिनका नाम था- श्रीदामा। एक दिन उन्होंने बड़े प्रेम से बलराम और श्रीकृष्ण से कहा- "हम लोगों को सर्वदा सुख पहुँचाने वाले बलरामजी। आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। उसमें बहुत सारे ताड़ के वृक्ष हैं। वे सदा फलों से लदे रहते हैं। वहाँ धेनुक नाम का दुष्ट दैत्य भी रहता है। उसने उन फलों को खाने पर रोक लगा रखी है। वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। है श्रीकृष्ण! हमें उन फलों को खाने की बड़ी इच्छा है।" अपने सखा ग्वाल बालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों हंसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके साथ ताड़ वन के लिए चल पड़े।

धेनुकासुर का वध

वन में पहुँचकर बलराम ने अपनी बांहों से उन ताड़ के पेड़ों को पकड़ लिया और बड़े जोर से हिलाकर बहुत से फल नीचे गिरा दिए। जब गधे के रूप में रहने वाले दैत्य धेनुकासुर ने फलों के गिरने का शब्द सुना, तब वह बलराम की ओर दौड़ा। बलराम ने अपने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिए और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा। घुमाते समय ही उस गधे के प्राण पखेरू उड़ गए। उसकी इस गति को देखकर उसके भाई-बंधु अनेकों गदहे वहाँ पहुँचे। बलराम तथा कृष्ण ने सभी को मार डाला।[1] जिस प्रकार बलराम ने धेनुकासुर को मारा, ग्वालबाल बलराम के बल की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। धेनुकासुर वह है, जो भक्तों को भक्ति के वन में भी आनंद के मीठे फल नहीं खाने देता। बलराम बल और शौर्य के प्रतीक हैं। जब कृष्ण हृदय में हों तो बलराम के बिना अधूरे हैं। बलराम ही भक्ति के आनंद को बढ़ाने वाले हैं। ग्वालबाल अब मीठे फल भी खा रहे हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[2] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात् छठे वर्ष में प्रवेश किया था। अब उन्हें गौएँ चराने की स्वीकृति मिल गयी। वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते। यह वन गौओं एक लिये हरी-हरी घास से युक्त एवं रंग-बिरंगे पुष्पों की खान हो रहा था। आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालबाल, इस प्रकार विहार करने के लिये उन्होंने उस वन में प्रवेश किया। उस वन में कहीं तो भौरें बड़ी मधुर गुंजार कर रहे थे, कहीं झुंड-के-झुंड हिरन चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहक रहे थे। बड़े ही सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ और निर्मल था। उनमें खिले हुए कमलों के सौरभ से सुवासित होकर शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु उस वन की सेवा कर रही थी। इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान ने मन-ही-मन उसमें विहार करने का संकल्प किया। पुरुषोत्तम भगवान ने देखा कि बड़े-बड़े वृक्ष फल और फूलों के भार से झुककर अपनी डालियों और नूतन कोंपलों की लालिमा से उनके चरणों का स्पर्श कर रहे हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से कुछ मुसकाते हुए-से अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "देवशिरोमणे! यों तो बड़े-बड़े देवता आपके चरणकमलों की पूजा करते है; परन्तु देखिये तो, ये वृक्ष भी अपनी डालियों से सुन्दर पुष्प और फलों की सामग्री लेकर आपके चरणकमलों में झुक रहे हैं, नमस्कार कर रहें हैं। क्यों न हो, इन्होंने इसी सौभाग्य के लिये तथा अपना दर्शन एवं श्रवण करने वालों के अज्ञान का नाश करने के लिये ही तो वृन्दावनधाम में वृक्ष-योनि ग्रहण की है। इनका जीवन धन्य है। आदिपुरुष! यद्यपि आप इस वृन्दावन में अपने ऐश्वर्यरूप को छिपाकर बालकों की-सी लीला कर रहें हैं, फिर भी आप आपके श्रेष्ठ भक्त मुनिगण अपने इष्टदेव को पहचानकर यहाँ भी प्रायः भौरों के रूप में आपके भुवन-पावन यश का निरन्तर गान करते हुए आपके भजन में लगे रहते हैं। वे एक क्षण के लिये भी आपको नहीं छोड़ना चाहते। भाईजी! वास्तव में आप ही स्तुति करने योग्य हैं। देखिये, आपको अपने घर आया देख ये मोर आपके दर्शनों से आनन्दित होकर नाच रहे हैं। हिरनियाँ मृगनयनी गोपियों के समान अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवन से आपके प्रति प्रेम प्रकट कर रही हैं, आपको प्रसन्न कर रही हैं। ये कोयलें अपनी मधुर कुहू-कुहू ध्वनि से आपका कितना सुन्दर स्वागत कर रही हैं। वे वनवासी होने पर भी धन्य हैं। क्योंकि सत्पुरुषों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे घर आये अतिथि को अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु भेँट कर देंते हैं। आज यहाँ की भूमि अपनी हरी-हरी घास के साथ आपके चरणों का स्पर्श प्राप्त करके धन्य हो रही है। यहाँ के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ आपकी अँगुलियों का स्पर्श पाकर अपना अहोभाग्य मान रही हैं। आपकी दया भरी चितवन से नदी, पर्वत, पशु, पक्षी-सब कृतार्थ हो रहे हैं और ब्रज की गोपियाँ आपके वक्षःस्थल का स्पर्श प्राप्त करके, जिसके लिये स्वयं लक्ष्मी भी लालायित रहती हैं, धन्य-धन्य हो रही हैं।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! इस प्रकार परम सुन्दर वृन्दावन को देखकर भगवान श्रीकृष्ण बहुत ही आनन्दित हुए। वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गोवर्धन की तराई में, यमुना के तट पर गौओं को चराते हुए अनेकों प्रकार की लीलायें करने लगे।

बलरामजी और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोप-बालक थे 'श्रीदामा'। एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोककृष्ण (छोटे कृष्ण) आदि ग्वालबालों ने श्याम और राम से बड़े प्रेम के साथ कहा- "हम लोगों को सर्वदा सुख पहुँचाने वाले बलरामजी! आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वाभाव ही है। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताड़ के वृक्ष भरे पड़े हैं। वहाँ बहुत-से ताड़ के फल पक-पकाकर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहले के गिरे हुए भी हैं। परन्तु वहाँ धेनुक नाम का एक दुष्ट दैत्य रहता है। उसने उन फलों पर रोक लगा रखी है।

बलरामजी और भैया श्रीकृष्ण! वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। वह स्वयं तो बड़ा बलवान है ही, उसके साथी और भी बहुत-से उसी के समान बलवान दैत्य उसी रूप में रहते हैं। मेरे शत्रुघाती भैया! उस दैत्य ने अब तक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं! यही कारण है कि उसके डर के मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगल में नहीं जाते। उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परन्तु हमने कभी नहीं खाये। देखो न, चारों ओर उन्हीं की मन्द-मन्द सुगन्ध फ़ैल रही है। तनिक-सा ध्यान देने से उसका रस मिलने लगता है। श्रीकृष्ण! उनकी सुगन्ध से हमारा मन मोहित हो गया है और उन्हें पाने के लिये मचल रहा है। तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ। दाऊ दादा! हमें उन फलों की बड़ी उत्कट अभिलाषा है। आपको रुचे तो वहाँ अवश्य चलिये।"

अपने सखा ग्वालबालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों हँसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिये उनके साथ तालवन के लिये चल पड़े। उस वन में पहुँचकर बलरामजी ने अपनी बाँहों से उन ताड़ के पेड़ों को पकड़ लिया और मतवाले हाथी के बच्चे के समान उन्हें बड़े जोर से हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये। जब गधे के रूप में रहने वाले दैत्य ने फलों के गिरने का शब्द सुना, तब वह पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को कँपाता हुआ उनकी ओर दौड़ा। वह बड़ा बलवान था। उसने बड़े वेग से बलरामजी के सामने आकर अपने पिछले पैरों से उनकी छाती में दुलत्ती मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोर से रेंकता हुआ वहाँ से हट गया। राजन! वह गधा क्रोध में भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलरामजी के पास पहुँचा और उनकी ओर पीठ करके फिर बड़े क्रोध में अपने पिछले पैरों की दुलत्ती चलायी। बलरामजी ने अपने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा। घुमाते समय उस गधे के प्राण पखेरू उड़ गये थे।

उसके गिरने की चोट से वह महान ताड़ का वृक्ष, जिसका ऊपरी भाग बहुत विशाल था, स्वयं तो तड़तड़ाकर गिर ही पड़ा, सटे हुए दूसरे वृक्ष को भी उसने तोड़ डाला। उसने तीसरे को, तीसरे ने चौथे को-इस प्रकार एक-दूसरे को गिराते हुए बहुत-से तालवृक्ष गिर पड़े। बलरामजी के लिये तो यह एक खेल था। परन्तु उनके द्वारा फेंके हुए गधे के शरीर से चोट खा-खाकर वहाँ सब-के-सब ताड़ हिल गये। ऐसा जान पड़ा, मानो सबको झंझावात ने झकझोर दिया हो। भगवान बलराम स्वयं जगदीश्वर हैं। उनमें यह सारा संसार ठीक वैसे ही ओत-प्रोत है, जैसे सूतों में वस्त्र। तब भला, उनके लिये यह कौन आश्चर्य की बात है। उस समय धेनुकासुर के भाई-बन्धु अपने भाई के मारे जाने से क्रोध के मारे आगबबूला हो गये। सब-के-सब गधे बलरामजी और श्रीकृष्ण पर बड़े वेग से टूट पड़े। राजन! उनमें से जो-जो पास आया, उसी-उसी को बलरामजी और श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में ही पिछले पैर पकड़कर तालवृक्षों पर दे मारा।

उस समय वह भूमि ताड़ के फलों से पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्यों के प्राणहीन शरीरों से भर गयी। जैसे बादलों से आकाश ढक गया हो, उस भूमि की वैसी ही शोभा होने लगी। बलरामजी और श्रीकृष्ण की यह मंगलमयी लीला देखकर देवतागण उन पर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे। जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिन से लोग निडर होकर उस वन के तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दता के साथ घास चरने लगे।

इसके बाद कमलदल लोचन भगवान श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजी के साथ ब्रज में आये। उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे। क्यों न हो; भगवान की लीलाओं का श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है। उस समय श्रीकृष्ण की घुँघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, सिर पर मोरपंख का मुकुट था और बालों में सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुँथे हुए थे। उनके नेत्रों में मधुर चितवन और मुख पर मनोहर मुस्कान थी। वे मधुर-मधुर बाँसुरी बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्ति का गान कर रहे थे। वंशी की ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही ब्रज से बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कब से श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये तरस रही थीं। गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से भगवान के मुखारविन्द का मकरन्द-रस पान करके दिन-भर के विरह की जलन शान्त की और भगवान ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनय से युक्त प्रेम भरी तिरछी चितवन का सत्कार स्वीकार करके ब्रज में प्रवेश किया। उधर यशोदा मैया और रोहिणी का हृदय वात्सल्य स्नेह से उमड़ रहा था। उन्होंने श्याम और राम के घर पहुँचते ही उनकी इच्छा के अनुसार तथा समय के अनुरूप पहले से ही सोच-सँजोकर रखी हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं-पिलायीं और पहनायीं। माताओं ने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया। इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरने की मार्ग की थकान दूर हो गयी। फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पों की माला पहनायी तथा चन्दन लगाया तत्पश्चात् दोनों भाइयों ने माताओं का परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया। उसके बाद बड़े लाड़-प्यार से दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणी ने उन्हें सुन्दर शय्या पर सुलाया। श्याम और राम बड़े आराम से सो गये।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भागवत 10। 15, ब्रह्मपुराण- 186, विष्णुपुराण- 5-5, हरिवंशपुराण- वि. पर्व, 13.
  2. दशम स्कन्ध, अध्याय 15, श्लोक 1-9 तथा 20-46

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