धन्‍य कृष्‍न अवतार ब्रह्म लियौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


धन्‍य कृष्‍न अवतार ब्रह्म लियौ। रेख न रूप प्रगट दरसन दियौ।।
जल थल मैं कोउ और नहीं बियौ। दुष्‍टनि बधि संतनि कौं सुख दियौ।।
जो प्रभु नर देही नहिं धरते। देवै-गर्भ नहीं अवतरते।।
कंस-सोक कैसैं उर टरते। मातु पिता दुरितहिं क्‍यौं हरते।।
जौ प्रभु ब्रज-भीतर नहिं आवैं। नंद जसोदा क्‍यौं सुख पावै।।
पूरब तप कैसैं प्रगटावैं। बेद-बचन कैसैं ठहरावैं।।
जौ प्रभु भेष धरैं नहिं बालक। कैसे होहिं पूतना-चालक।।
अंगुठा पियत सकट-संहारक। तृना अकास सिला पर डारक।।
जौ प्रभु ब्रज माखन न चोरावैं। क्‍यौं गोपिनि कौं आपु जनावैं।।
भुजा उलूखल नाहिं बंधावैं। जमला मोच्‍छ कौन बिधि पावैं।।
सो प्रभु दधि-दानी कहवावै। गोपिनि कौं मारग अँटकावैं।।
करि करि लेखै दान सुनावैं। आपुन खीझैं उनहिं खिझावैं।।
ब्रजबासी यौ धन्‍य कहावैं। जहाँ स्‍याम दधि-दान लगावैं।।
माँगि खात आनंद बढ़ावैं। जुवतिनि सौं कहि-कहि परुसावैं।।
तेई हरि नटवर-बपु काछै। मोर-मुकुट पीतांबर आछैं।।
ग्‍वाल सखा ठाढ़े सब पाछैं। सूर स्‍याम गोपिनि सुख साछैं।।1607।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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