महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार द्वारकापुरी का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
विश्वकर्मा द्वारा द्वारकापुरी का निर्माण
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! सर्वव्यापी नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने सब प्रकार के मनोवाच्छित पदार्थों से भरीपूरी द्वारकापुरी को देखकर प्रसन्नतापर्वूक उस में प्रवेश करने की तैयारी की। उन्होंने देखा, द्वारकापुरी के सब ओर बगीचों में बहुत से रमणीय वृक्ष समूह शोभा पा रहे हैं, जिनमें नाना प्रकार के फल और फूल लगे हुए हैं। वहाँ के रमणीय राजसदन सूर्य और चन्द्राम के समान प्रकाशमान तथा मेरुपर्वत के शिखरों की भाँति गगनचुम्बी थे। उन भवानों से विभूषित द्वारकापुरी की रचाना साक्षात विश्वकर्मा ने की थी।ै[1] उस पुरी के चारों ओर बनी हुई चौड़ी खाइयाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। उनमें कमल के फूूल खिले हुए थे। हंस आदि पक्षि उनके जल का सेवन करते थे। वे देखने में गंगा और सिन्धु के समान जान पड़ती थीं। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाली ऊंची गगनचुम्बिनी श्वेत चहारदीवारी से सुशोभित द्वारका पुरी सफेद बादलों से घिरी हुई देवपुरी (अमरावती) के समान जान पड़ती थी। नन्दन और मिश्र जैसे वन सब पुरी को शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ का दिव्य चैत्ररथ वन ब्रह्माजी के अलौकिक उद्यान की भाँति शोभित था। सभी ऋतुओं के फूलों से भरे हुए वैभ्राज नामक वन के सट्टश मनोहर उपवनों से घिरी हुई द्वारकापुरी ऐसी जान पड़ती थी, मानों आकाश में तारिकाओं से व्याप्त स्वर्गपुरी शोभा पा रही हो। रमणीय द्वारकापुरी की पूर्वदिशा में महाकाय रैवतक पर्वत, जो उस पुरी का आभूषण रूप था, सुशोभित हो रहा था। उसके शिखर बड़े मनोहर थे। पुरी के दक्षिण भाग में लतावेष्ट नामक पर्वत शोभा पा रहा था, जो पाँच रंग का होने के कारण इन्द्रध्वज सा प्रतीत होता था। पश्चिमदिशा में सुकक्ष नामक रजत पर्वत था, जिसके ऊपर विचित्र पुष्पों से सुशोभित महान् वन शोभा पा रहा था। पाण्डवश्रेष्ठ! इसी प्रकार उत्तरदिशा में मन्दराचल के सट्टश श्वेत वर्णवाला वेणुमन्त पर्वत शोभायमान था। रैव तक पर्वत के पास चित्र कम्बल के से वर्ण वाले पांचजन्य वन तथा सर्वर्तुक वन की भी बड़ी शोभा होती थी। लतावेष्ट पर्वत के चारों ओर मेरुप्रभ नामक महान् वन, तालवन तथा कमलों से सुशोभित पुष्पक वन शोभा पा रहे हैं। सुकक्ष पर्वत को चारों ओर से घेरकर चित्रपुष्प नामक महावन, शतपत्र वन, करवीरवन और कुसुकम्भिवन सुशोभित होते हैं। वेणुमन्त पर्वत के सब ओर चैत्ररथ, नन्दन, रमण और भावन नामक महान् वन शोभा पाते हैं। भारत! महात्मा केशव की उस पुरी में पूर्वदिशा की ओर कए रमणीय पुष्करिणी शोभा पाती है, जिसका विस्तार सौ धनुष हैं। पचास दरवाजों से सुशोभित और सब ओर से पकाशमान उस सुरम्य महापुरी द्वारका में श्रीकृष्ण ने प्रवेश किया। वह कितनी ड़ी है, इसका कोई माप नहीं था। उसकी ऊँचाई भी बहुत अधिक थी। वह पुरी चारों ओर अत्यन्त अगाध जलराशि से घिरी हुई थी। सुन्दर-सुन्दर महलों से भरी हुई द्वारका श्वेत अट्टालिकाओं से सुशोभित होती थी। तीखे यंत्र, शतन्घी, विभिन्न यंत्रों के समुदाय और लाहे के बने हुए बड़े बड़े चक्रकों से सुरक्षित द्वारकापुरी को भगवान ने देखा। देवपुरी की भाँति उसकी चहारदीवारी के निकट क्षुद्र घण्टिकाओं से सुशोभित आठ हजार रथ शोभा पाते थे, जिनमें पताकाएँ फहराती रहती थीं। द्वारकापुरी की चौड़ाई आठ योजन है एवं लम्बाई बारह योजन है अर्थात वह कुल 16 योजन विस्तृत है। उसका उपनिवेश (समीपस्थ प्रदेश) उससे दुगुना अर्थात् 192 योजन विस्तृत है। वह पुरी सब प्रकार से अविचल है। श्रीकृष्ण ने उस पुरी को देखा। उसमें जाने के लिये आठ मार्ग हैं, बड़ी-बड़ी ड्योढ़ियाँ हैं और सोहल बड़े बड़े चौराहे हैं। इस प्रकार विभिन्न मार्गों से परिष्कृत द्वारकापुरी साक्षात् शक्राचार्य की नीति के अनुसार बनायी गयी है। व्यूहों के बीच-बीच में मार्ग बने हैं, सात बड़ी बड़ी सड़कें हैं। साक्षात् विश्वकर्मा ने इस द्वारका नगरी का निर्माण किया है। सोने और मणियों की सीढ़ियों से सुशोभित यह नगरी जन जन को हर्ष प्रदान करने वाली है।[2]
महल के भीतरी भाग का वर्णन
यहाँ गीत के मधुर स्वर तथा अन्य प्रकार के घोष गूँजते रहते हैं। बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं के कारण वह पुरी परम सुन्दर प्रतीत होती है। नगरों में श्रेष्ठ उस द्वारका में यशस्वी हशार्हवंशियों के महल देखकर भगवान पाकशासन इन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन महलों के ऊपर ऊँची पताकाएँ फहरा रही थीं। वे मनोहर भवन मेघों के समान जान पड़ते थे और सुवर्णमय होने के कारण अत्यन्त प्रकाशमान थे। वे मेरुपर्वत के उत्तुंग शिखरों के समान आकाश को चूम रहे थे। उन गृहों के शिखर चूने से लिपे पुते और सफेद थे। उनकी छतें सुवर्ण की बनी हुई थीं। वहाँ के शिखर, गुफा और शृंग सभी रत्नमय थे। उस पुरी के भवन सब प्रकार के रत्नों से विभूषित थे। (भगवान ने देखा) वहाँ बड़े-बड़े महल, अटारी तथा छज्जे हैं और उन छज्जों में लटकते हुए पक्षियों के पिंजड़े शोभा पाते हैं। कितने ही यन्त्रगृह वहाँ के महलों की शोभा बढ़ाते हैं। अनेक प्रकार के रत्नों से जटित होने के कारण द्वारका के भवन विधि धातुओं से विभूषित पर्वतों के समान शोभा धारण करते हैं। कुछ गृह तो मणि के बने हैं, कुछ सुवर्ण से तैयार किये गये हैं और कुछ पार्थिव पदार्थों (ईंट, पत्थर आदि) द्वारा निर्मित हुए हैं। उन सब के निम्रभाग चूने से स्वच्छ किये गये हैं। उनके दरवाजे (खैखड- किंवाड़े) जाम्बूनद सुवर्ण के बने हैं और अर्गलाएँ (सिटकनियाँ) वैदूर्यमणि तैयार की गयी हैं। उन गृहों का स्पर्श सभी ऋृतुओं में सुख देने वाला है। वे सभी बहुमूल्य सामानों से भरे हैं। उनकी समतल भूमि, गुफा और शिखर सभी अत्यन्त मनोहर हैं। इससे उन भवनों की शोभा विचित्र पर्वतों के समान जान पड़ती है। उन गृहों में पाँच रंगों के सुवर्ण मढ़े गये हैं। उनसे जो बहुरंगी आभा फैलती है, वह फलझड़ी सी जान पड़ती है। उन गृहों से मेघ की गम्भीर गर्जना के समान शब्द होते रहते हैं। वे देखने में अनेक वर्णों के बादलों के समान जान पड़ते हैं।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 28
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 29
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 30
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