द्रौपदी

संक्षिप्त परिचय
द्रौपदी
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अन्य नाम कृष्णा, पांचाली
अवतार शची (इन्द्राणी) का अंशावतार
पिता द्रुपद
जन्म विवरण द्रुपद ने द्रोणाचार्य से प्रतिशोध लेने के लिए यज्ञ किया था और उस यज्ञ से उन्हें पुत्र धृष्टद्युम्न और पुत्री कृष्णा की प्राप्ति हुई।
समय-काल महाभारत काल
परिजन भाई धृष्टद्युम्न, पिता द्रुपद
विवाह द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव से हुआ था। जिनके नाम इस प्रकार है- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव
संतान द्रौपदी को युवराज युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक और सहदेव से श्रुतवर्मा नामक पुत्र थे।
महाजनपद पांचाल की राजकुमारी और हस्तिनापुर की रानी।
शासन-राज्य कुरु
संदर्भ ग्रंथ महाभारत
मृत्यु स्वर्ग जाते समय द्रौपदी की मृत्यु मार्ग में सबसे पहले हुई।

द्रौपदी महाभारत में पाँच पांडवों की रानी थी। उसका जन्म महाराज द्रुपद के यहाँ यज्ञकुण्ड से हुआ था। अतः यह ‘यज्ञसेनी’ भी कहलाई। द्रौपदी पूर्वजन्म में किसी ऋषि की कन्या थी। उसने पति पाने की कामना से तपस्या की थी। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसे वर देने की इच्छा की। उसने भगवान शंकर से पांच बार कहा कि "वह सर्वगुणसंपन्न पति चाहती है।" शंकर जी ने कहा कि अगले जन्म में उसके पांच भरतवंशी पति होंगे, क्योंकि उसने पति पाने की कामना पांच बार दोहरायी थी।[1]

जन्म

गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट 'याज' तथा 'उपयाज' नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य को मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, "इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये, जिससे कि वे आपको महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।" महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न होकर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया, जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था तथा प्रकट होते ही रथ पर चढ़ गया, जैसे युद्ध के लिए उद्यत हो। उसका नाम 'धृष्टद्युम्न' रखा गया। उसी समय आकाश में अदृश्य महाभूत ने कहा- 'यह बालक द्रोणाचार्य का वध करेगा।' तदुपरांत वेदी से द्रौपदी नामक सुंदर कन्या का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के संहार और कौरवों के विनाश हेतु हुआ है। बालिका का नाम 'कृष्णा' रखा गया। आगे चलकर द्रोणाचार्य ने ही धृष्टद्युम्न को अस्त्रविद्या की शिक्षा दी।

परम सुंदरी

भगवान श्रीकृष्ण की सखी आदर्श भगवद्-विश्वास की मूर्ति देवी द्रौपदी पांचाल नरेश राजा द्रुपद की अयोनिजा कन्या थी। इसकी उत्पत्ति यज्ञवेदी से हुई थी। इसका रूप-लावण्य अनुपम था। अंगकान्ति श्याम-सुन्दर होने से द्रौपदी को लोग ‘कृष्णा’ भी कहते थे। इसके शरीर से तुरंत खिले हुए कमल की मधुर सुगन्ध निकलकर एक कोस तक फैलती रहती थी। इसके प्राकट्य के समय आकाशवाणी हुई थी- "देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये क्षत्रियों के संहार के उद्देश्य से रमणी-रत्ना का प्राकट्य हुआ है। इसके कारण कौरवों को बड़ा भय होगा।" पूर्वजन्म में दिये हुए भगवान शंकर के वरदान से इसे पाँच बलशाली पति प्राप्त होंगे। अकेले अर्जुन के द्वारा स्वयंवर में जीती जाने पर भी माता कुंती की आज्ञा से इसे पांचों भाइयों ने ब्याहा था।

स्वयंवर

लाक्षागृह से बच निकलने के पश्चात् जब पांडव अपनी माता कुंती सहित यहाँ-वहाँ घूम रहे थे, तब उन्होंने पांचाल राजकुमारी द्रौपदी के स्वयंवर के विषय में सुना। वे लोग भी इस स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए धौम्य को अपना पुरोहित बनाकर पांचाल देश पहुँचे। कौरवों से छुपने के लिए उन्होंने ब्राह्मण वेश धारण कर रखा था। राजा द्रुपद द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ करना चाहते थे। लाक्षागृह की घटना सुनने के बाद भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता था कि पांडवों का निधन हो गया है, अत: द्रौपदी के स्वयंवर के लिए उन्होंने यह शर्त रखी कि निरंतर घूमते हुए यंत्र के छिद्र में से जो भी वीर निश्चित धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर दिये गये पांच बाणों से, छिद्र के ऊपर लगे लक्ष्य को भेद देगा, उसी के साथ द्रौपदी का विवाह कर दिया जायेगा। ब्राह्मणवेश में पांडव भी स्वयंवर-स्थल पर पहुँचे। कौरव आदि अनेक राजा तथा राजकुमार तो धनुष की प्रत्यंचा के धक्के से भूमिसात हो गये। कर्ण ने धनुष पर बाण चढ़ा तो लिया, किंतु द्रौपदी ने सूत-पुत्र से विवाह करना नहीं चाहा, अत: लक्ष्य भेदने का प्रश्न ही नहीं उठा। अर्जुन ने छद्मवेश में पहुँचकर लक्ष्य भेद दिया तथा द्रौपदी को प्राप्त कर लिया।

कृष्ण अर्जुन को देखते ही पहचान गये। शेष उपस्थित व्यक्तियों में यह विवाद का विषय बन गया कि ब्राह्मण को कन्या क्यों दी गयी है। अर्जुन तथा भीम के रण-कौशल तथा कृष्ण की नीति से शांति स्थापित हुई तथा अर्जुन और भीम द्रौपदी को लेकर डेरे पर पहुँचे। उनके यह कहने पर कि वे लोग भिक्षा लाये हैं, उन्हें बिना देखे ही कुंती ने कुटिया के अंदर से कहा कि- "सभी मिलकर उसे ग्रहण करो।" पुत्रवधू को देखकर अपने वचनों को सत्य रखने के लिए कुंती ने पांचों पांडवों को द्रौपदी से विवाह करने के लिए कहा। द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न उन लोगों के पीछे-पीछे छुपकर आया था। वह यह तो नहीं जान पाया कि वे सब कौन हैं, पर स्थान का पता चलाकर पिता की प्रेरणा से उसने उन सबको अपने घर पर भोजन के लिए आमन्त्रित किया।

पूर्वजन्म

द्रुपद को यह जानकर कि वे पांडव हैं, बहुत प्रसन्नता हुई, किंतु यह सुनकर विचित्र लगा कि वे पांचों द्रौपदी से विवाह करने के लिए उद्यत हैं। तभी वेदव्यास ने अचानक प्रकट होकर एकांत में द्रुपद को उन छहों के पूर्वजन्म की कथा सुनायी कि-

एक वार रुद्र ने पांच इन्द्रों को उनके दुरभिमान स्वरूप यह शाप दिया था कि वे मानव-रूप धारण करेंगे। उनके पिता क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा अश्विनीकुमार (द्वय) होंगे। भूलोक पर उनका विवाह स्वर्गलोक की लक्ष्मी के मानवी रूप से होगा। वह मानवी द्रौपदी है तथा वे पांचों इन्द्र पांडव हैं। व्यास मुनि के व्यवस्था देने पर द्रौपदी का विवाह क्रमश: पांचों पांडवों से कर दिया गया। व्यास ने उनके पूर्व रूप देखने के लिए द्रुपद को दिव्य दृष्टि भी प्रदान की। द्रुपद के दिये तथा कृष्ण के भेजे विभिन्न उपहारों को ग्रहण कर वे लोग द्रुपद की नगरी में ही विहार करने लगे।

संतान

द्रौपदी पांच पांडवों से पांच पुत्रों की माता बनी थी। उसके पाँचों पुत्रों के नाम निम्नलिखित थे[2]-

  1. युधिष्ठिर से 'प्रतिविंध्य'
  2. भीम से 'श्रुतसोम'
  3. अर्जुन से 'श्रुतकर्मा'
  4. नकुल से 'शतानीक'
  5. सहदेव से 'श्रुतसेन'

श्रीकृष्ण में प्रीति

द्रौपदी उच्च कोटि की पतिव्रता एवं भगवद भक्ता थी। उसकी भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अविचल प्रीति थी। ये उन्हें अपना सखा, रक्षक, हितैषी एवं परम आत्मीय तो मानती ही थी, उनकी सर्वव्यापकता एवं सर्वशक्तिमत्‍ता में भी इसका पूर्ण विश्वास था। जब कौरवों की सभा में दुष्ट दु:शासन ने द्रौपदी को नग्न करना चाहा और सभासदों में से किसी का साहस न हुआ कि इस अमानुषी अत्याचार को रोके, उस समय अपनी लाज बचाने का कोई दूसरा उपाय न देखकर उसने अत्यन्त आतुर होकर भगवान श्रीकृष्ण को पुकारा-

गोविन्दो द्वारकावासिन् कृष्णी गोपीजनप्रिय।।
कौरवै: परिभूतां मां‍ किं न जानासि केशव।
हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्त्तिनाशन।।
कौरवार्णवमग्नांथ मामुद्धरस्व। जनार्दन।
कृष्णर कष्ण् महायोगिन्‍ विश्वाेत्म्न्‍ विश्व भावन।।
प्रपन्नांम पाहि गोविन्द। कुरुमध्येशअवसीदतीम्‍।।[3]

"हे गोविन्द! हे द्वारकावासी! हे सच्चिदानन्दस्वरूप प्रेमघन! हे गोपीजनवल्लभ! हे केशव! मैं कौरवों के द्वारा अपमानित हो रही हूँ, इस बात को क्या आप नहीं जानते? हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ, हे आर्तिनाशन जनार्दन! मैं कौरव समुद्र में डूब रही हूँ, आप मुझे इससे निकालिये। कृष्ण! कृष्णे! महायोगी! विश्वात्मा! विश्व के जीवनदाता गोविन्द! मैं कौरवौ से घिरकर बडे संकट में पडी हुई हूँ, आपकी शरण में हूँ, मेरी रक्षा कीजिए।"

सच्चे हृदय की करुण पुकार भगवान तुरंत सुनते हैं। श्रीकृष्ण उस समय द्वारका में थे। वहाँ से वे तुरंत दौड़े आये और धर्मरूप से द्रौपदी के वस्त्रों के रूप में प्रकट होकर उनकी लाज बचायी। भगवान की कृपा से द्रौपदी की साड़ी अनन्तगुना बढ़ गयी। दु:शासन उसे जितना ही खींचता था, उतना ही वह बढ़ती जाती थी। देखते ही देखते वहाँ वस्त्र का ढेर लग गया। महाबली दुशासन की दस हज़ार हाथियों के बलवाली प्रचण्ड भुजाएं थक गयीं, परन्तु साड़ी का छोर हाथ नहीं आया। ‘दस हज़ार गजबल थक्यौ , घट्यौ न दस गज चीर।" वहाँ उपस्थित सारे सभाजनों ने भगवद्भक्ति एवं पतिव्रता का अद्भुत चमत्कार देखा। अन्त में दुशासन हारकर लज्जित होकर बैठ गया। भक्तावत्सल पुभु ने अपने भक्त की लाज रख ली।

कृष्ण द्वारा सहायता

पात्र में लगे साग को खाते श्रीकृष्ण

एक दिन की बात है, जब पांडव द्रौपदी के साथ काम्यभक वन में निवास कर रहे थे, दुर्योधन के भेजे हुए महर्षि दुर्वासा अपने दस हज़ार शिष्यों को साथ लेकर पांडवों के पास आये। दुष्ट दुर्योधन ने जान-बूझकर उन्हें ऐसे समय भेजा, जबकि सब लोग भोजन करके विश्राम कर रहे थे। महाराज युधिष्ठिर ने अतिथि सेवा के उद्देश्य से ही भगवान सूर्यदेव से एक ऐसा चमत्कारी बर्तन प्राप्त किया था, जिसमें पकाया हुआ थोड़ा-सा भी भोजन अक्षय हो जाता था, परंतु उसमें शर्त यह थी कि जब तक द्रौपदी भोजन नहीं कर चुकती थी, तभी तक उस बर्तन में यह चमत्कार रहता था। युधिष्ठिर ने महर्षि को शिष्यमण्डली के सहित भोजन के लिये आमन्त्रित किया और दुर्वासा जी स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिये सबके साथ गंगातट पर चले गये।

द्रौपदी दुर्वासा ऋषि व उनके साथ आये हुए ऋषियों को भोजन परोसते हुए

दुर्वासा जी के साथ दस हज़ार शिष्यों का एक पूरा-का-पूरा विश्वविद्यालय चला करता था। धर्मराज ने उन सबको भोजन का निमन्त्रण तो दे दिया और ऋषि ने उसे स्वीकार भी कर लिया, परन्तु किसी ने भी इसका विचार नहीं किया कि द्रौपदी भोजन कर चुकी है, इसलिये सूर्य के दिये हुए बर्तन से तो उन लोगों के भोजन की व्यवस्था हो नहीं सकती थी। द्रौपदी बड़ी चिन्ता में पड़ गयी। उसने सोचा- "ऋषि यदि बिना भोजन किये वापस लौट जाते हैं तो वे बिना शाप दिये नहीं मानेंगे।" उनका क्रोधी स्वभाव जगदविख्यात था। द्रौपदी को और कोई उपाय नहीं सूझा। तब उसने मन ही मन भक्तभयभंजन भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया और इस आपत्ति से उबारने की उनसे विश्वासपूर्ण प्रार्थना करते हुए अन्त में कहा- "आपने जैसे सभा में दु:शासन के अत्याचार से मुझे बचाया था, वैसे ही यहाँ भी इस महान संकट से तुरंत बचाइये-

दु:शासनादहं पूर्वं सभायां मोचिता यथा।
तथैव संकटादस्मान्माीयुत्रर्तुमिहार्हसि।।[4]

श्रीकृष्ण तो सदा सर्वत्र निवास करते और घट-घट की जानने वाले हैं, वे तुरंत वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर द्रौपदी के शरीर में मानो प्राण लौट आये, डूबते हुए को मानो सच्चा सहारा मिल गया। द्रौपदी ने संक्षप में उन्हें सारी बात सुना दी। श्रीकृष्ण ने अधीरता प्रदर्शित करते हुए कहा- "और सब बात पीछे हागी। पहले मुझे जल्दीं से कुछ खाने को दो। मुझे बड़ी भूख लगी है। तुम जानती नहीं हो मैं कितनी दूर से हारा थका आया हूँ।" द्रौपदी लाज के मारे गड़-सी गयी। उसने रुकते-रुकते कहा- "प्रभो! मैं अभी-अभी खाकर उठी हूँ। अब तो उस बर्तन में कुछ भी नहीं बचा है।" श्रीकृष्ण ने कहा- "जरा अपना बर्तन मुझे दिखाओ तो सही।" कृष्णा उसे ले आयी। श्रीकृष्ण। ने हाथ में लेकर देखा तो उसके गले में उन्हें एक साग का पत्ता लगा हुआ मिला। उन्होंने उसी को मुंह में डालकर कहा- "इस साग के पत्ते से सम्पूर्ण जगत के आत्मा यज्ञभोक्ता परमेश्वर तृप्त हो जायँ।" इसके बाद उन्होंने सहदेव से कहा- "भैया! अब तुम मुनीश्वरों को भोजन के लिये बुला लाओ। सहदेव ने गंगातट पर जाकर देखा तो वहाँ उन्हें कोई नहीं मिला। बात यह हुई कि जिस समय श्रीकृष्ण ने साग का पत्ता मुंह में डालकर वह संकल्प किया, उस समय मुनीश्वर लोग जल में खडे होकर अघमर्षण कर रहे थे। उन्हें अकस्मात ऐसा अनुभव होने लगा मानो उन सबका पेट गले तक अन्न से भर गया हो। वे सब एक-दूसरे के मुंह की ओर ताकने लगे और कहने लगे कि- "अब हम लोग वहाँ जाकर क्या खायेंगे। दुर्वासा ने चुपचाप भाग जाना ही श्रेयस्कर समझा, क्योंकि वे यह जानते थे कि पांडव भगवद्भक्त हैं और अम्बरीष के यहाँ उन पर जो कुछ बीती थी, उसके बाद से उन्हें भगवद्भक्तो से बड़ा डर लगने लगा था। बस, सब लोग वहाँ से चुपचाप भाग निकले। सहदेव को वहाँ रहने वाले तपस्वियों से उन सबके भाग जाने का समाचार मिला और उन्होंने लौटकर सारी बात धर्मराज से कह दी। इस प्रकार द्रौपदी की श्रीकृष्ण भक्ति से पांडवों की एक भारी विपत्ति सहज ही टल गयी। श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर उन्हें महर्षि दुर्वासा के दुर्दनीय क्रोध से बचा लिया और इस प्रकार अपनी शरणागत वत्सलता का परिचय दिया।

व्यथा

राजसूय यक्ष की समाप्ति पर श्रीकृष्ण द्वारका चले गये थे। शाल्व ने अपने कामचारी विमान सौभ के द्वारा उत्पात मचा रखा था। पहुँचते ही केशव ने शाल्व पर आक्रमण किया। सौभ को गदाघात से चूर्ण करके, शाल्व तथा उसके सैनिकों को परमधाम भेजकर जब वे द्वारका में लौटे, तब उन्हें पांडवों के जुए में हारने का समाचार मिला। वे सीधे हस्तिनापुर आये और वहाँ से जहाँ वन में पांडव अपनी स्त्रियों, बालकों तथा प्रजावर्ग एवं विप्रों के साथ थे, पहुँचे। पांडवों से मिलकर उन्होंने कौरवों के प्रति रोष प्रकट किया।

द्रौपदी ने श्रीकृष्ण से वहाँ कहा- "मधुसूदन! मैंने महर्षि असित और देवल से सुना है कि आप ही सृष्टिकर्ता हैं। परशुराम जी ने बताया था कि आप साक्षात अपराजित विष्णु हैं। आप ही यज्ञ, ऋषि, देवता तथा पंचभूतस्वरूप हैं। जगत आपके एक अंश में स्थित है। त्रिलोकी में आप व्याप्त हैं। निर्मलहृदय महर्षियों के हृदय में आप ही स्फुरित होते हैं। आप ही ज्ञानियों तथा योगियों की परम गति हैं। आप विभु हैं, सर्वात्मा हैं, आपकी शक्ति से ही सबको शक्ति प्राप्त होती है। आप ही मुत्यु, जीवन एवं कर्म के अधिष्ठाता हैं। आप ही परमेश्वर हैं। मैं अपना दु:ख आपसे न कहूँ तो किससे कहूँ।" यों कहते-कहते द्रौपदी के नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गयी। वह फुफकार मारती हुई कहने लगी- "मैं महापराक्रमी पांडवों की पत्नी, धृष्टद्युम्न की बहन और आपकी सखी हूँ। कौरवों की भीर सभा में मेरे केश पकड़कर मुझे घसीटा गया। मैं एकवस्त्रा रजस्वला थी, मुझे नग्न करने का प्रयत्न किया गया। ये मेरे पति मेरी रक्षा न कर सके। इसी नीच दुर्योधन ने भीम को विष देकर जल में बांधकर फेंक दिया था। इसी दुष्ट ने पांडवों को लाक्षावन में भस्म करने का प्रयत्न किया था। इसी पिशाच ने मेरे केश पकड़कर घसीटवाया और आज भी वह जीवित है।"

पांचाली फूट-फूटकर रोने लगी। उसकी वाणी अस्पष्ट हो गयी। वह श्रीकृष्ण को उलाहना दे रही थी- "तुम मेरे सम्बन्धीे हो, मैं अग्नि से उत्पन्न गौरवमयी नारी हूं, तुम पर मेरा पवित्र अनुराग है, तुम पर मेरा अधिकार है और रक्षा करने में तुम समर्थ हो। तुम्हारे रहते मेरी यह दशा हो रही है।" भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण और न सुन सके। उन्होंने कहा- "कल्याणी! जिन पर तुम रुष्ट हुई हो, उनका जीवन समाप्त हुआ समझो। उनकी स्त्रियां भी इसी प्रकार रोयेंगी और उनके अश्रु सूखने का मार्ग नष्ट हो चुका रहेगा। थोड़े दिनों में अर्जुन के बाणों से गिकर वे शृगाल और कुत्तों के आहार बनेंगे। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम सम्राज्ञी बनकर रहोगी। आकाश फट जाये, समुद्र सूख जायं, हिमालय चूर हो जाय, पर मेरी बात असत्य न होगी, न होगी।"

कर्तव्य परायणता

इसी यात्रा में एक दिन बातों-ही-बातों में सत्यभामा ने द्रौपदी से पूछा- "बहन! मैं तुमसे एक बात पूछती हूँ कि तुम्हारे शूरवीर और बलवान पति सदा तुम्हारे अधीन रहते हैं, इसका कारण क्या है? क्या तुम कोई जन्तर-मन्तर या औषधि जानती हो, अथवा क्या तुमने जप, तप, व्रत, होम या विद्या से उन्हें वश में कर रखा है? मुझे भी कोई ऐसा उपाय बताओ, जिससे भगवान श्यामसुन्दर मेरे वश में हो जायं।" देवी द्रौपदी ने कहा- "बहन! आप श्यामसुन्दर की पटरानी एवं प्रियतमा होकर कैसी बातें कर रही हैं। सती-साध्वी स्त्रियां जंतर-मंतर आदि से उतनी ही दूर रहती हैं, जितनी सांप-बिच्छू से। क्या पति को जंतर-मंतर आदि से वश में किया जा सकता है? भोली-भाली अथवा दुराचारिणी स्त्रियां ही पति को वश में करने के लिए इस प्रकार के प्रयोग किया करती हैं। ऐसा करके वे अपना तथा अपने पति का अहित ही करती हैं। ऐसी स्त्रियों से तो सदा दूर रहना चाहिये।"

इसके बाद द्रौपदी ने बतलाया कि अपने पतियों को प्रसन्न रखने के लिये वह किस प्रकार का आचरण करती थी। उसने कहा- "बहन! मैं अहंकार और काम-क्रोध का परित्याग करके बड़ी सावधानी से सब पांडवों की ओर उनकी स्त्रियों की सेवा करती हूँ। मैं ईर्ष्या से दूर रहती हूँ और मन को वश में रखकर केवल सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों के मन रखती हूँ। मैं कटुभाषण से दूर रहती हूं, असभ्यता से खड़ी नहीं होती, खोटी बातों पर दृष्टि नहीं डालती, बुरी जगह पर नहीं बैठती, दूषित आचरण के पास नहीं फटकती तथा पतियों के अभिप्रायपूर्ण संकेतों का अनुसरण करती हूँ। देवता, मनुष्य, गन्धंर्व, युवा, धनी अथवा रूपवान- कैसा ही पुरुष क्यों न हो, मेरा मन पांडवों के सिवाय और कहीं नहीं जाता। अपने पतियों के भोजन किये बिना मैं भोजन नहीं करती और बैठे बिना स्वयं नहीं बैठती। जब-जब मेरे पति घर आते हैं, तब-तब मैं खड़ी होकर उन्हें आसन और जल देती हूँ। मैं घर के बर्तनां को मांज-धोकर साफ रखती हूँ, मधुर रसोई तैयार करती हूँ, समय पर भोजन कराती हूँ। सदा सजग रहती हूँ, घर में अनाज की रक्षा करती हूँ और घर को झाड़-बुहारकर साफ रखती हूँ। मैं बातचीत में किसी का तिरस्कार नहीं करती, कुलटा स्त्रियों के पास नहीं फटकती और सदा ही पतियों के अनुकूल रहकर आलस्य से दूर रहती हूँ। मैं दरवाज़े पर बार-बार जाकर खड़ी नहीं होती तथा खुली अथवा कूड़ा-करकट डालने की जगह पर भी अधिक नहीं ठहरती, किन्तु सदा ही सत्यभाषण और पतिसेवा में तत्पर रहती हूँ। पतिदेव के बिना अकेली रहना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। जब किसी कौटुम्बिक कार्य से पतिदेव बाहर चले जाते हैं, तब मैं पुष्प और चन्दनादि को छोड़कर नियम और व्रतों का पालन करती हुई समय बिताती हूँ। मेरे पति जिस चीज को नहीं खाते, नहीं पीते अथवा सेवन नहीं करते, मै भी उससे दूर रहती हूँ। स्त्रियों के लिये शास्त्र ने जो-जो बातें बतायी हैं, उन सबका में पालन करती हूँ। शरीर को यथाप्राप्त वस्त्रालंकारों से सुसज्जित रखती हूँ तथा सर्वदा सावधान रहकर पतिदेव का प्रिय करने में तत्पर रहती हूँ।"

"सास जी ने मुझे कुटुम्ब-सम्बन्धी जो-जो धर्म बताये हैं, उन सबका मैं पालन करती हूँ। भिक्षा देना, पूजन, श्राद्ध, त्यौहारों पर पकवान बनाना, माननीयों का आदर करना तथा और भी मेरे लिये जो-जो धर्म विहित है, उन सभी का मैं सावधानी से रात-दिन आचरण करती हूँ, मैं विनय और नियमों को सर्वदा सब प्रकार अपनाये रहती हूँ। मेरे विचार से तो स्त्रियों का सनातन धर्म पति के अधीन रहना ही है, वही उनका इष्टदेव है। मैं अपने पतियों से बढ़कर कभी नहीं रहती, उनसे अच्छा भोजन नहीं करती, उनसे बढ़िया वस्त्राभूषण नहीं पहनती और न कभी सास जी से वाद-विवाद करती हूँ, तथा सदा ही संयम का पालन करती हूँ। मैं सदा अपने पतियों से पहले उठती हूँ तथा बड़े-बूढ़ों की सेवा में लगी रहती हॅूं। अपनी सास की मैं भोजन, वस्त्र और जल आदि से सदा ही सेवा करती रहती हूँ। वस्त्र, आभूषण और भोजनादि में मैं कभी उनकी अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती। पहले महाराज युधिष्ठिर के दस हज़ार दासियां थीं। मुझे उन सबके नाम, रूप, वस्त्र आदि सब का पता था और इस बात का भी ध्यान रहता था कि किसने क्या काम कर लिया है और क्या नहीं। जिस समय इंद्रप्रस्थ में रहकर महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी-पालन करते थे, उस समय उनके साथ एक लाख घोडे और उतने ही हाथी चलते थे। उनकी गणना और प्रबन्ध मैं ही किया करती और मैं ही उनकी आवश्यकताएं सुनती थी। अन्त:पुर के ग्वालों और गडरियों से लेकर सभी सेवकों के काम-काज की देख-रेख भी मैं ही किया करती थी।

महाराज की जो कुछ आय, व्यय और बचत होती थी, उस सबका विवरण मैं अकेली ही रखती थी। पांडव लोग कुटुम्ब का सारा भार मेरे ऊपर छोड़कर पूजा-पाठ में लगे रहते थे और आये-गयों को स्वागत-सत्कार करते थे, और मैं सब प्रकार का सुख छोड़कर उसकी सँभाल करती थी। मेरे पतियों का जो अटूट खजाना था, उसका पता भी मुझ एक को ही था। मैं भूख-प्यास को सहकर रात-दिन पांडवों की सेवा में लगी रहती। उस समय रात और दिन मेरे लिये समान हो गये थे। मैं सदा ही सबसे पहले उठती और सबसे पीछे सोती थी। सत्यभामा जी! पतियों को अनुकूल करने का मुझे तो यही उपाय मालूम है।" एक आदर्श गृहपत्नी को घर में किस प्रकार रहना चाहिये, इसकी शिक्षा और प्रेरणा द्रौपदी के जीवन से सहज ही प्राप्त होती है।

कौरव सर्वनाथ की मूल

द्रौपदी के जिन लंबे-लंबे, काले बालों का कुछ ही दिन पहले राजसूय यज्ञ में अवभृथ-स्नान के समय मन्त्रीपूत जल से अभिषेक किया गया था, उन्हीं बालों का दुष्ट दु:शासन के द्वारा भरी सभा में खींचा जाना द्रौपदी को कभी नहीं भूला। उस अभूतपूर्व अपमान की आग उसके हृदय में सदा ही जला करती थी। इसीलिये जब-जब उसके सामने कौरवों से सन्धि करने की बात आयी, तब-तब उसने विरोध ही किया और बराबर अपने अपमान की याद दिलाकर अपने पतियों को युद्ध के लिये प्रोत्साहित करती रही। अन्त में जब यही तय हुआ कि एक बार कौरवों को समझा-बुझाकर देख लिया जाय, और जब भगवान श्रीकृष्ण पांडवों की ओर से सन्धि का प्रस्तााव लेकर हस्तिनापुर जाने लगे, उस समय भी उसे अपने अपमान की बात नहीं भूली और उसने अपने लंबे-लंबे काले बालों को उन्हें दिखाते हुए श्रीकृष्ण से कहा- "श्रीकृष्णे! तुम सन्धि करने जा रहे हो सो तो ठीक है, परंतु तुम मेरे इन खुले केशों को न भूल जाना-

जाहु भलें कुरुराज पै धारि दूत को वेस।।
भूलि न जैयो पै वहाँ केसौ कृष्णाे - केस।।

‘मधुसूदन! क्या मेरे ये केश आजीवन खुले ही रहेंगे? यदि पांडव युद्ध नहीं करना चाहते तो मैं अपने पांचों पुत्रों को आदेश दूँगी, पुत्र अभिमन्यु उनका नेतृत्व करेगा, मेरे वृद्ध पिता और भाई सहायता करेंगे। पर श्रीकृष्ण! तुम्हारा चक्र क्या शान्त ही रहेगा? इस पर श्रीकृष्ण ने गम्भीरता के साथ कहा- "कृष्णे! आंसुओं को राको, मैंने प्रतिज्ञा की है, और प्रकृति के सारे नियमों के पलट जाने पर भी वह मिथ्या नहीं होगी। तुम्हा‍रा जिन पर कोप है, उनकी विधवा पत्नियों को तुम शीघ्र ही रोते देखोगी।"

काम्यकवन में जब दुष्ट जयद्रथ द्रौपदी को बलपूर्वक ले जाने की चेष्टा करने लगा, तब इस वीरांगना ने उसे इतने जोर से धक्का दिया कि वह कटे हुए पेड़ की तरह जमीन पर गिर पड़ा, किंतु फिर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ और उसे बलपूर्वक रथ पर बैठाकर ले चला। जब भीम-अर्जुन उसे पकड़ लाये और उसको अपने दुष्कर्म का पर्याप्त दण्ड मिल गया, तब द्रौपदी ने दया करके उसे छुड़वा दिया। क्रोध के साथ-साथ क्षमा का कैसा अपूर्व मेल है। उनका पतिव्रत-तेज तो अपूर्व था ही। जिस किसी ने भी उनके साथ छेड़-छाड़ की, उसी को प्राणों से हाथ धोने पड़े। दुर्योधन, दु:शासन, कर्ण, जयद्रथ, कीचक आदि सबकी यही दशा हुई। महाभारत के युद्ध में जो कौरवों का सर्वनाश हुआ, उसका मूल सती द्रौपदी का अपमान ही था।

दया भावना

महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ। पांडव सेना शान्ति से शयन कर रही थी। श्रीकृष्ण पांचों पांडवों तथा द्रौपदी को लेकर उपप्लव्य नगर चले गये थे। प्रात: दूत ने समाचार दिया कि रात्रि में शिविर में अग्नि लगाकर अश्वत्थामा ने सबको निर्दयतापूर्वक मार डाला। यह सुनते ही सब रथ में बैठकर शिविर में पहुँचे। अपने मृत पुत्रों को देखकर द्रौपदी ने बड़े करुण स्वर में क्रन्दन करते हुए कहा- "मेरे पराक्रमी पुत्र यदि युद्ध में लड़ते हुए मारे गये होते तो मैं संतोष कर लेती। क्रूर ब्राह्मण ने निर्दयतापूर्वक उन्हें सोते समय मार डाला है।" द्रौपदी को धर्मराज ने समझाने का प्रयत्नत किया, परंतु पुत्र के शवों के पास रोती माता को क्या समझायेगा कोई। भीम ने क्रोधित होकर अश्व‍त्थामा का पीछा किया। श्रीकृष्ण ने बताया कि नीच अश्वात्थामा भीम पर ब्रह्मास्त्र प्रयोग कर सकता है। अर्जुन को लेकर वे भी पीछे रथ में बैठकर गये। अश्वात्था्मा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसे शान्त करने को अर्जुन ने भी उसी अस्त्रे से उसे शान्त करना चाहा। दोनों ब्रह्मास्त्र ने प्रलय का दृश्य उपस्थित कर दिया। भगवान वेदव्यास तथा देवर्षि नारद ने प्रकट होकर ब्रह्मास्त्रों को लौटा लेने का आदेश दिया। अर्जुन ने तो ब्रह्मास्त्र लौटा लिया। पकड़कर द्रोण-पुत्र को उन्होंने बॉंध लिया और अपने शिविर में ले आये।

अश्वत्थामा का बचाव करते द्रौपदी

अश्वत्थामा पशु की भाँति बंधा हुआ था। निन्दित कर्म करने से उसकी श्री नष्ट हो गयी थी। उसने सिर झुका रखा था। अर्जुन ने उसे लाकर द्रौपदी के सम्मुख खड़ा कर दिया। गुरुपुत्र को इस दशा में देखकर द्रौपदी को दया आ गयी। उसने कहा- "इन्हें जल्दी छोड़ दो। जिनसे सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की आप लोगों ने शिक्षा पायी है, वे भगवान द्रोणाचार्य ही पुत्ररूप में स्वयं उपस्थित हैं। जैसे पुत्रों के शोक में मुझे दु:ख हो रहा है, मैं रो रही हूँ, ऐसा ही प्रत्येक स्त्री को होता होगा। इनकी माता देवी कृपी को यह शोक न हो। वे पुत्र शोक में मेरी तरह न रोयें। ब्राह्मण का हमारे द्वारा अनादर नहीं होना चाहिए।" भीमसेन अश्वत्थामा के वध के पक्ष में थे। अन्त में श्रीकृष्ण की सम्मति से द्रोण पुत्र के मस्तिक पर रहने वाली मणि छीनकर अर्जुन ने उसे शिविर से बाहर निकाल दिया।

परमधाम गमन

द्वारका से लौटकर अर्जुन ने जब यदुवंश के नाश का समाचार दिया, तब परीक्षित का राज्याभिषेक करके धर्मराज ने अपने राजोचित वस्त्रों का त्याग कर दिया। मौन-व्रत लेकर वे निकल पड़े। भाइयों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया। द्रौपदी ने भी वल्कल पहना और पतियों के पीछे चल पड़ी। धर्मराज सीधे उत्तर की ओर चलते गये। बदरिकाश्रम से ऊपर वे हिमप्रदेश में जा रहे थे। द्रौपदी सबके पीछे चल रही थी। सब मौन थे। कोई किसी की ओर देखता नहीं था। द्रौपदी ने अपना चित्त सब ओर से एकाग्र करके परात्पर भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया था। उसे शरीर का पता नहीं था। हिम पर फिसल कर वह गिर पड़ी। शरीर उसी श्वेत हिमराशि में विलीन हो गया। महारानी द्रौपदी तो परम तत्त्व से एक हो चुकी थी। वह तो वस्तुत: भगवान की अभिन्न शक्ति ही थी।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 166, 168।
  2. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 182 से 198 तक
  3. (महा., सभा. 68। 41-44)
  4. (महाभारत, वनपर्व 263|16)

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