देवकी विवाह

देवकी वध को प्रयात्नशील कंस

देवकी मथुरा के राजा उग्रसेन के भाई देवक की कन्या थी। वह श्रीकृष्ण और बलराम की माता थीं। देवकी को 'अदिति' का अवतार भी माना जाता है। यह भी माना जाता है कि उनका पुनर्जन्म 'पृष्णि' के रूप में हुआ था और उस जन्म में उनका विवाह राजा सुतपस से हुआ।

विवाह तथा आकाशवाणी

कंस अपनी छोटी चचेरी बहन देवकी से अत्यन्त स्नेह करता था। जब उसका विवाह वसुदेव से हुआ तो कंस स्वयं रथ हाँककर अपनी बहन को उसकी ससुराल पहुँचाने के लिए चला। जब कंस रथ हाँक रहा था, तभी मार्ग में आकाशवाणी हुई-

"मूर्ख! तू जिसे इतने प्रेम से पहुँचाने जा रहा है, उसी के आठवें गर्भ से उत्पन्न पुत्र तेरा वध करेगा।"

आकाशवाणी सुनते ही कंस का बहन के प्रति सारा प्रेम समाप्त हो गया। वह रथ से कूद पड़ा और देवकी के केश पकड़ कर तलवार से उसका वध करने के लिये तैयार हो गया। हर्ष के स्थान में उदासी छा गयी, स्नेह का स्थान द्वेष ने ग्रहण कर लिया। कंस क्रोध के साथ बोला- "बस, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। विष के वृक्ष को बढ़ने ही क्यों दिया जाय कि फिर उसके फलों से मृत्यु की संभावना हो। बढ़ने के पहले वृक्ष को काट ही देना बुद्धिमानी है। मैं अभी इस देवकी का अन्त किये देता हूँ।" पास में बैठे हुए वसुदेव ने बड़े धैर्य के साथ उसे समझाया, ज्ञान की बातें बतायी, धर्म सुझाया और अन्त में विश्वास दिलाया कि- "इसके जितने भी पुत्र होंगे, हम सब तुम्हें दे जाया करेंगे। तुम इस अबला को, जो तुम्हारी छोटी बहन है, नवविवाहिता है, क्यों मारते हो?" भगवान की प्रेरणा से कंस के मन में यह बात बैठ गयी।

पति सहित कारावास

कंस ने देवकी को छोड़ दिया, परन्तु पीछे से वसुदेव के सहित देवकी को कारावास में बंद कर दिया। क्रमशः देवकी के गर्भ से सात संतानें हुई। अपनी प्रतिज्ञानुसार वसुदेव ने उन्हें कंस को सौंप दिया और उस दुष्ट ने सभी को मार डाला। अष्टम गर्भ में साक्षात श्रीभगवान चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। यह गर्भ देवकी के लिये ‘हर्षशोकविविर्धनः’ हुआ। हर्ष तो इस बात का था कि साक्षात भगवान अवतीर्ण हुए हैं, शोक कंस के अत्यचारों को लेकर, जब भगवान अपनी प्रभा से दसों दिशाओं को जगमगाते हुए शंख, चक्र, गदा पद्म के साथ चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए, तब देवकी माता ने उनकी बड़ी स्तुति की और प्रार्थना की-

"प्रभो! मैं कंस से बहुत डरती हूं, वह तुम्हें भी मार डालेगा। अतः उससे मेरी रक्षा करो और अपना यह अलौकिक रूप छिपा लो।" लीलामय भगवान ने कहा- "यदि ऐसा ही है तो मुझे नन्द के गोकुल में भेज दो; वहाँ यशोदा के गर्भ में मेरी माया उत्पन्न हुई है, उसे ले आओ।" यह कहकर प्रभु साधारण शिशु हो गये। वसुदेव भगवान को नन्द जी के यहाँ पहुँचा आये और वहाँ से कन्या को ले आये।

बन्दी जीवन से मुक्ति

बालक उत्पन्न हुआ है, यह सुनकर कंस आया और उसने उस शिशु-कन्या को ज्यों ही पत्थर पर पटका, त्यों ही वह असाधारण कन्या आकाश में उड़कर अष्टभुजा के रूप में परिवर्तित हो गयी। भगवान श्रीकृष्ण ब्रज में ही बड़े हुए। देवकी माता अपने हृदय के टुकड़े को देखने के लिये तरसती रहीं। उनका मन उस श्यामसुन्दर सलोनी मनमोहिनी मूर्ति के लिये तरसता रहा। कंस को मारकर जब भगवान देवकी जी और वसुदेव के पास आये, तब भगवान ने अत्यन्त स्नेह प्रदर्शित करते हुए कहा- "आप लोग सदा मेरे लिये उत्कण्ठित रहे; किंतु मैं आप लागों की कुछ भी सेवा शुश्रूषा नहीं कर सका। बाल्यकाल की क्रीड़ाएं करके बालक माता-पिता को प्रमुदित करता है; मेरे द्वारा यह भी नहीं हो सका, अतः आप क्षमा करें।" इस प्रकार भगवान ने मातृ-पितृ भक्ति प्रदर्शित की।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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