दुर्योधन का अपने सैनिकों को समझाकर पुन: युद्ध में लगाना

महाभारत शल्य पर्व के अंतर्गत तीसरे अध्याय में संजय ने भीम द्वारा पच्चीस हज़ार पैदलों के वध करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

दुर्योधन का सैनिकों को समझाना

भरतश्रेष्ठ! जैसे पूर्वकाल में राजा बलि ने देवताओं को युद्ध के लिये ललकारा था, उसी प्रकार दुर्योधन ने समस्त पाण्डवों का आह्वान किया। तब वे पाण्डव योद्धा अत्यन्त कुपित हो गर्जना करने वाले दुर्योधन को बारंबार फटकारते और क्रोधपूर्वक नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए एक साथ ही उस पर टूट पड़े। दुर्योधन भी बिना किसी घबराहट के अपने बाणों द्वारा उन शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करने लगा। वहाँ हम लोगों ने आपके पुत्र का अद्भुत पराक्रम देखा कि समस्त पाण्डव मिलकर भी उसे लाँघकर आगे न बढ़ सके। दुर्योधन ने देखा कि मेरी सेना अत्यन्त घायल हो रणभूमि से पलायन करने का विचार रखकर भाग रही है, परंतु अधिक दूर नहीं गयी है। राजेन्द्र! तब युद्ध का ही दृढ़ निश्चय रखने वाले आपके पुत्र ने उन समस्त सैनिकों को खड़ा करके उनका हर्ष बढ़ाते हुए कहा- वीरों! मैं भूतल पर और पर्वतों में भी कोई ऐसा स्थान नहीं देखता, जहाँ चले जाने पर तुम लोगों को पाण्डव मार न सकें; फिर तुम्हारे भागने से क्या लाभ है? पाण्डवों के पास थोड़ी-सी सेना शेष रह गयी है और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन भी बहुत घायल हो चुके हैं। यदि हम सब लोग यहाँ डटे रहें तो निश्चय ही हमारी विजय होगी। यदि तुम लोग पृथक-पृथक होकर भागोगे तो पाण्डव तुम सभी अपराधियों का पीछा करके तुम्हें मार डालेंगे, अतः युद्ध में ही मारा जाना हमारे लिये श्रेयस्कर होगा।[1]

क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध करने वाले वीरों के लिये संग्राम भूमि में होने वाली मृत्यु ही सुखद है; क्योंकि वहाँ मरा हुआ मनुष्य मृत्यु के दुःख को नहीं जानता और मृत्यु के पश्चात् अक्षय सुख का भागी होता है। जितने क्षत्रिय यहाँ आये हैं वे सब सुनें-तुम लोग भागने पर अपने शत्रु भीमसेन के अधीन हो जाओगे। इसलिये अपने बाप-दादो के द्वारा आचरण में लाये हुए धर्म का परित्याग न करो। क्षत्रिय के लिये युद्ध छोड़कर भागने से बढ़कर दूसरा कोई अत्यन्त पापपूर्ण कर्म नहीं है। कौरवों! युद्धधर्म से बढ़कर दूसरा कोई स्वर्ग का श्रेष्ठ मार्ग नहीं है। दीर्घकाल तक पुण्यकर्म करने से प्राप्त होने वाले पुण्यलोकों को वीर क्षत्रिय युद्ध से तत्काल प्राप्त कर लेता है।[2]

कौरव सैनिकों का पुन: आक्रमण

राजा दुर्योधन की उस बात का आदर करके वे महारथी क्षत्रिय पुनः युद्ध करने के लिये पाण्डवों के सामने आये। उन्हें पराजय असह्य हो उठी थी; इसलिये उन्होंने पराक्रम करने में ही मन लगाया था। तदनन्तर आपके और शत्रुपक्ष के सैनिकों में पुनः देवासुर संग्राम के सामने अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा। महाराज! उस समय आपके पुत्र दुर्योधन ने अपनी सारी सेना के साथ युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डवों पर धावा किया था।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 3 श्लोक 38-53
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 3 श्लोक 54-61

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