दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 121 के अनुसार दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग वर्णन इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का भीष्म से दण्ड के विषय में पूछना

युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! आपने यह सनातन राजधर्म का वर्णन किया है। इसके अनुसार महान दण्‍ड ही सबका ईश्‍वर हैं, दण्‍ड के ही आधार पर सब कुछ टिका हुआ है। प्रभो! देवता, ऋषि, पितर, महात्‍मा, यक्ष, राक्षस, पिशाच तथा साध्‍यगण एवं पशु-पक्षीयों की योनि में निवास करने वाले जगत् के समस्‍त प्राणियों के लिये भी सर्वव्‍यापी महातेजस्‍वी दण्‍ड ही कल्‍याण का साधन है।। देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित इस सम्‍पूर्ण विश्‍व को अपने समीप देखते हुए आपने कहा है कि दण्‍ड पर ही चराचर जगत् प्रतिष्ठित है। भरतश्रेष्‍ठ! मैं यथा‍र्थ रुप से यह सब जानना चाहता हूँ। दण्‍ड क्‍या है? कैसा है? उसका स्‍वरुप किस तरह का है? और किसके आधार पर उसकी स्थिति है? प्रभो! उसका उपादान क्‍या है ? उसकी उत्‍पति कैसे हुई है ? उसका आकार कैसा है?। वह किस प्रकार सावधान रहकर सम्‍पूर्ण प्राणियों पर शासन करने के लिये जागता रहता है? कौन इस पृथ्‍वी पर जगत् का प्रतिपालन करता हुआ जागता है?। पहले इसे किस नाम से जाना जाता था ? कौन दण्‍ड प्रसिद्ध है? दण्‍ड का आधार क्‍या है ? तथा उसकी गति क्‍या बतायी गयी है ?[1]

भीष्म का युधिष्ठिर को दण्ड का स्वरूप बताना

भीष्‍मजी ने कहा- कुरुनन्‍दन! दण्‍ड का जो स्‍वरुप है तथा जिस प्रकार उसको ‘व्‍यवहार’ कहा जाता है, वह सब तुम्‍हें बताता हूं; सुनो। इस संसार में सब कुछ जिसके अधीन है, वही अद्वितीय पदार्थ यहाँ ‘दण्‍ड‘ कहलाता है। महाराज! धर्म का ही दूसरा नाम व्‍यवहार है। लोक में सतत सावधान रहने वाले पुरुष के धर्म का किसी तरह लोप न हो; इसीलिये दण्‍ड की आवश्‍यकता हैं और यही उस व्‍यवहार का व्‍यवहारत्‍व[2] है। राजन्! पूर्वकाल में मनु ने यह उपदेश दिया है कि जो राजा प्रिय और अप्रिय के प्रति समान भाव रखकर किसी के प्रति पक्षपातन करके दण्‍ड का ठीक-ठीक उपयोग करते हुए प्रजा की भलीभाँति रक्षा करता हैं, उसका वह कार्य केवल धर्म है। नरेन्‍द्र! उपर्युक्‍त सारी बातें मनुजी ने पहले ही कह दी है और मैंने जो बात कही है, वह ब्रहाजी का महान वचन है। यही वचन मनुजी के द्वारा पहले कहा गया है; इसलिये इसको ‘प्राग्‍वचन’ के नाम से भी जानते हैं। इसमें व्‍यवहार का प्रतिपादन होने से यहाँ व्‍यवहार नाम दिया गया है। दण्‍ड का ठीक-ठीक उपयोग होने पर राजा के धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि सदा होती रहती है।[1]

दण्ड देवता स्वरूप

इसलिये दण्‍ड महान् देवता हैं, यह अग्नि के समान तेजस्‍वी रुप से प्रकट हुआ। इसके शरीर को कान्ति नील कमलदल के समान श्‍याम है, इसके चार दाढ़ें और चार भुजाएं हैं। आठ पैर और अनेक नेत्र हैं।
इसके कान खूंट के समान हैं और रोएं उपर की ओर उठे हुए हैं। इसके सिर जटा है, मुख में दो जिह्णऍं हैं, मुख का रंग तांबे के समान हैं, शरीर को ढकने के लिये उसने व्‍याघ्रचर्म धारण कर रखा है, इस प्रकार दुर्धर्ष दण्‍ड सदा यह भयंकर रुप धारण किये रहता है[3]।। खड्ग, धनुष, गदा, शक्ति, त्रिशुल, मुद्गर, बाण, मुसल, फरसा, चक्र, पाश, दण्‍ड, ॠष्टि, तोमर तथा दूसरे-दूसरे जो कोई प्रहार करने योग्‍य अस्‍त्र-शस्‍त्र हैं, उन सबके रुप में सर्वात्‍मा दण्‍ड ही मूर्तिमान् होकर जगत् में विचरता हैं। वही अपराधियों को भेदता, छेदता, पीड़ा देता, काटता, चीरता, फाड़ता तथा मरवाता है। इस प्रकार दण्‍ड ही सब ओर दौड़ता-फिरता हैं।[1]

दण्ड के नाम

युधिष्ठिर! असि, विशसन, धर्म, तीक्ष्‍णवर्मा, दुराधर, श्रीगर्भ, विजय, व्‍यवहार, शास्‍त्र, ब्राह्मण, मन्‍त्र, शास्‍ता, प्राग्‍वदतांवर, धर्मपाल, अक्षर, देव, सत्‍यग, नित्‍यग, अग्रज, असंग, रुद्रतनय, मनु, ज्‍येष्‍ठ और शिवशंकर ये दण्‍ड के नाम कहे गये हैं।[1]

दण्ड भगवान विष्णु का रूप

दण्‍ड सर्वत्र व्‍यापक होने के कारण भगवान् विष्‍णु है और नरों (मनुष्‍यो) का अयन (आश्रम) होने से नारायण कहलाता हैं। वह प्रभावशाली होने से प्रभु और सदा महत् रुप धारण करता हैं, इसलिये महान पुरुष कहलाता है।[4]-

दण्डनीती ब्रह्मकन्या

इसी प्रकार दण्‍डनीति भी ब्रह्माजी की कन्‍या कही गयी है। लक्ष्‍मी, वृति, सरस्वती तथा जगद्धाजी भी उसी के नाम है।

दण्ड के अनेक रूप

इस प्रकार दण्‍ड के बहुत-से रुप है। अर्थ-अनर्थ, सुख-दु:ख, धर्म-अधर्म, बल-अबल, दौर्भाग्‍य-सौभाग्‍य, पुण्‍य-पाप, गुण-अवगुण, काम-अकाम, ॠतु-मास, दिन-रात, क्षण, प्रमाद-अप्रमाद, हर्ष-क्रोध, शम-दम, दैव-पुरुषार्थ, बन्‍ध-मोक्ष, भय-अभय, हिंसा-अहिंसा, तप-यज्ञ, संयम, विष-अविष, आदि, अन्‍त, मध्‍य, कार्य विस्‍तार, मद, असावधानता, दर्प, दम्‍भ, धैर्य, नीति-अनिती, शक्ति-अशक्ति, मान,स्‍तब्‍धता, व्‍यय-अव्‍यय, विनय,दान, काल-अकाल, सत्‍य-असत्‍य, ज्ञान, श्रद्धा-अश्रद्धा ,अकर्मण्‍यता,उद्योग, लाभ-हानि, जय-पराजय, तीक्ष्‍णता-मृदुता, मृत्‍यु, आना-जाना, विरोध-अविरोध, कर्तव्‍य-अकर्तव्‍य, सबलता-निर्बलता, असूया-अनसूया, धर्म-अधर्म , लज्‍जा-अलज्‍जा, सम्‍पति-विपति, स्‍थान, तेज, कर्म, पाण्डित्‍य, वाक्शक्ति तथा तत्‍वबोध ये सब दण्‍ड के ही अनेक नाम और रुप है। कुरुनन्‍दन! इस प्रकार इस जगत् में दण्‍ड के बहुत-से रुप है।[4]

दण्ड का आवश्यकता

युधिष्ठिर! यदि संसार में दण्‍ड की व्‍यवस्‍था न होती तो सब लोग एक-दूसरे को नष्‍ट कर डालते। दण्‍ड के भय से मनुष्‍य आपस में मार-काट नहीं मचाते हैं। राजन्! दण्‍ड से सुरक्षित रहती हुई प्रजा ही इस जगत् में अपने राजा को प्रतिदिन धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न करती रहती है। इसलिये दण्‍ड ही सबको आश्रय देने वाला है। नरेश्‍वर! दण्‍ड ही इस लोक को शीघ्र ही सत्‍य में स्‍थापित करता है। सत्‍य में ही धर्म की स्थिति है और धर्म ब्राह्मणों में स्थित हैं। धर्मयुक्‍त श्रेष्‍ठ ब्राह्मण वेदों का स्‍वाध्‍याय करते हैं। वेदों से ही यज्ञ प्रकट हुआ है। यज्ञ देवताओं को प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं, इससे इन्‍द्र से प्रजाजनों पर अनुग्रह करके (समय पर वर्षा के द्वारा खेती उपजाकर) उन्‍हें अन्‍न देता है, समस्‍त प्राणियों के प्राण सदा अन्‍न पर ही टिेके हुए हैं; इसलिये दण्‍ड से ही प्रजाओं की स्थिति बनी हुई है। वही उनकी रक्षा के लिये सदा जगत रहता है। इस प्रकार रक्षा रुपी प्रयोजन सिद्ध करने वाला दण्‍ड क्षत्रियभाव को प्राप्‍त हुआ है। वह अविनाशी होने के कारण सदा सावधान होकर प्रजा की रक्षा के लिये जागता रहता है।[4]

दण्ड का प्रतिपादन

ईश्‍वर, पुरुष, प्राण, सत्‍व, चित, प्रजापति, भूतात्‍मा तथा जीव-इन आठ नामों से दण्‍ड का ही प्रतिपादन किया जाता है। जो सर्वदा सैनिक-बल से सम्‍पन्‍न है तथा जो धर्म, व्‍यवहार, दण्‍ड, ईश्‍वर और जीवरुप से पांच[5] प्रकार के स्‍वरुप धारण करता है, उस राजा को ईश्‍वर ने ही दण्‍डनीति तथा अपना ऐश्‍वर्य प्रदान किया है।[4]

बल के रूप

युधिष्ठिर! राजा का बल दो तरह का होता है- एक प्राकृत और दूसरा आहार्य। उनमें से कुल, प्रचुर, धन, मन्‍त्री तथा बुद्धि ये चार प्राकृतिक बल कहे गये हैं, आहार्य बल उससे भिन्‍न हैं। वह निम्‍नाकित आठ वस्‍तुओं के द्वारा आठ प्रकार का माना गया है। हाथी, घोड़े, रथ, पैदल, नौका, बेगार, देश की प्रजा तथा भेड़ आदि पशु-ये आठ अंगो वाला बल आहार्य माना गया है।[4] अथवा संयुक्‍त अंग के रथी, हाथीसवार, घुड़सवार, पैदल, मन्‍त्री, भिक्षुक, वकील, ज्‍योतिषी, दैवज्ञ, कोश, मित्र, धान्‍य तथा अन्‍य सब सामग्री, राज्‍य की सात प्रकृतियां (स्‍वामी, अमात्‍य, सुहद्, कोश, राष्‍ट्र, दुर्ग और सेना) और उपर्युक्‍त आठ अंगों से युक्‍त बल-इन सबको राज्‍य का शरीर माना गया है। इन सब में दण्‍ड ही प्रधान अंग है, क्‍योंकि दण्‍ड ही सब की उत्‍पति का कारण है। ईश्‍वर ने यत्‍नपूर्वक धर्मरक्षा के लिये क्षत्रिय के हाथ में उसके समान जातिवाला दण्‍ड समर्पित किया है; इसलिये दण्‍ड ही इस सनातन व्‍यवहार का कारण है। ब्रह्माजी ने लोक रक्षा तथा स्‍वधर्म की स्‍थापना के निमित धर्म का प्रदर्शन(उपदेश) किया था, वह दण्‍ड ही है। राजाओं के लिये उससे बढ़कर परम पूजनीय दूसरा धर्म नहीं है। स्‍वामी अथवा विचार के विश्‍वास के अनुसार जो व्‍यवहार उत्‍पन्‍न होता है, वह (वादी-प्रतिवादी द्वाराउठाये हुए विवाद से उत्‍पन्‍न व्‍यवहार की अपेक्षा) भिन्‍न ‘भर्तृप्रत्‍ययलक्षण’ वह सम्‍पूर्ण जगत् के लिये हितकर देखागया है (यह पहला भेद है)।[6]-

दण्ड के भेद

नरश्रेष्‍ठ! वेदप्रतिपादित दोषों का आचरण करने वाले अपराधी लिये जो व्‍यवहार या विचार होता है, वह वेदप्रत्‍यय कहलाता है (यह दूसरा भेद है) और कुलाचार भंग करने के अपराध पर किये जाने वाले विचार या व्‍यवहार को मौल कहते हैं (यह तीसरा भेद है)। इसमें भी शास्‍त्रोक्‍त दण्‍ड का ही विधान किया जाता है।। पहले जो भर्तृप्रत्‍ययलक्षण दण्‍ड बताया गया है, वह हमें राजा में ही स्थित जानना चाहिये, क्‍योंकि वह विश्‍वास और दण्‍ड राजा पर ही अवलम्बित है। यद्यपि स्‍वामी के विश्‍वास के आधार पर ही वह दण्‍ड देखा गया है; तथापि उसे भी व्‍यवहार स्‍वरुप ही माना गया हैं। जिसे व्‍यवहार माना गया है, वह भी वेदोक्‍त विषयसे भिन्‍न नहीं है। जिसका स्‍वरुप वेद से प्रकट हुआ है, वह धर्म ही है। जो धर्म है, वह अपना गुण (लाभ) दिखाता ही है। पुण्‍यात्‍मा पुरुषों ने धर्म के अनुसार ही धर्मविश्‍वास मूलक दण्‍ड का प्रतिपादन किया है।[6]

दण्ड ही सनातन व्यवहार

युधिष्ठिर! ब्रह्माजी का बनाया हुआ जो प्रजा-रक्षक व्‍यवहार है, वह सत्‍यस्‍वरुप होने के साथ ही ऐश्‍वर्य की वृद्धि करने वाला है; वही तीनों लोकों की धारण करता है। जो दण्‍ड है, वही हमारी दृष्टि में सनातन व्‍यवहार है। जो व्‍यवहार देखा गया हैं, वही वेद है, यह निश्चितरुप से कहा जा सकता है। जोवेद हैं, वही धर्म है और जो धर्म है, वही सत्‍पुरुषों का सन्‍मार्ग है। सत्‍पुरुष हैं लोकपितामह प्रजापति ब्रह्माजी,जो सबसे पहले प्रकट हुए थे। वे ही देवता, मनुष्‍य, नाग, असुर तथा राक्षसों सहित सम्‍पूर्ण लोकों के कर्ता तथा समस्‍त प्राणियों के स्‍त्रष्‍टा है।। उन्‍हीं से भर्तृप्रत्‍यय नामक इस अन्‍य प्रकार के दण्‍ड की प्रवृति हुई, फिर उन्‍होंने ही इस व्‍यवहार के लिये यह आदर्श वाक्‍य कहा- ‘माता,पिता, भाई, स्‍त्री तथा पुरोहित कोई भी क्‍यों न हो, जो अपने धर्म में स्थिर नहीं रहता, उसे राजा अवश्‍य दण्‍ड दें, राजा के लिये कोई भी अदण्‍डनीय नहीं है’।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 121 श्लोक 1-22
  2. ‘विगत: अवहार: धर्मस्‍य येन स: व्‍यवहार: ‘। दूर हो गया है धर्म का अवहार(लोप) जिसके द्वारा, वह व्‍यवहार हैं। इस व्‍युत्‍पति के अनुसार धर्म को लृप्‍त होने से बचाना ही व्‍यवहार का व्‍यवहारत्‍व है।
  3. यहाँ पद्रहवें और सोलहवें श्‍लोक में आये हुए पदों की नीलकण्‍ठ ने व्‍यावहारिक दण्‍ड के विशेष रूप से भी संगति लगायी हैं। इन विशेषणों को रुपक मानकर अर्थ किया हैं।
  4. 4.0 4.1 4.2 4.3 4.4 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 121 श्लोक 23-44
  5. किन्‍ही–किन्‍ही के मत में प्रजा के जीवन, धन, मान, स्‍वास्‍थ्‍य और न्‍याय की रक्षा करने के कारण राजा का स्‍वरुप पांच प्रकार का बताया गया है।
  6. 6.0 6.1 6.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 121 श्लोक 45-59

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महाभारत शान्ति पर्व में उल्लेखित कथाएँ


राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन | युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना | नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना | कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप | कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण | कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना | युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप | युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना | अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना | युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय | भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध | अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन | नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना | सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना | द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना | अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन | भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना | युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा | जनक का 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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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