थकित भई राधा ब्रजनारि।
जो मन ध्यान करति तेइ अंतरजामी ये बनवारि।।
रतन जटित पग सुभग पाँवरी, नूपुर परम रसाल।
मानहुँ चरन-कमल-दल-लोभी, बैठे बाल मराल।।
जुगल जघ मरकत-मनिक-रभा, विपरित भाँति सँवारे।
कटि काछनी कनक छुद्रावलि, पहिरे नंददुलारे।।
हृदय विसाल माल मोतिनि बिच, कौस्तुभ मनिं अति भ्राजत।
मानहु नाभ निर्मल तारागन, ता मधि चंद्र बिराजत।।
दुहूँ कर मुरली अधरनि धारे, मोहन राग बजावत।
चमकत दसन, मटकि नासापुट, लटकि नैन मुख गावत।।
कुंडल झलक कपोलनि मानहुँ, मीन सुधारस क्रीड़त।
भ्रकुटी धनुष, नैनखंजन मनु, उड़त नहीं मन ब्रीड़त।।
देखि रूप ब्रजनारि थकित भई, क्रीट मुकुट सिर सोहत।
ऐसे ‘सूर’ स्याम सोभानिधि, गोपीजनमन मोहत।।1791।।