तुकाराम
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पूरा नाम | तुकाराम |
जन्म | संवत 1665 विक्रमी (1608 ई.) |
जन्म भूमि | देहू नामक ग्राम (दक्षिण)। |
मृत्यु | संवत 1706 चैत्र कृष्ण द्वितीय। |
अभिभावक | पिता- बोलोजी, माता- कनकाबाई। |
पति/पत्नी | रखुमाई तथा जिजाई। |
कर्म भूमि | भारत |
भाषा | मराठी |
प्रसिद्धि | संत कवि |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | तुकाराम जी के सिद्ध उपदेश के अधिकारी बहुत लोग थे। छत्रपति शिवाजी तुकाराम को अपना गुरु बनाना चाहते थे, पर उनके नियत गुरु समर्थ रामदास हैं, यह अन्तर्दृष्टि से जानकर तुकाराम ने उन्हें उन्हीं की शरण में जाने का उपदेश दिया। |
तुकाराम महाराष्ट्र के एक महान संत और कवि थे। वे तत्कालीन भारत में चल रहे 'भक्ति आंदोलन' के प्रमुख स्तंभ थे। उन्हें 'तुकोबा' भी कहा जाता है। तुकाराम को चैतन्य नामक साधु ने 'रामकृष्ण हरि' मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया था। इसके उपरांत इन्होंने 17 वर्ष संसार को समान रूप से उपदेश देने में व्यतीत किए। तुकाराम के मुख से समय-समय पर सहज रूप से परिस्फुटित होने वाली 'अभंग' वाणी के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई विशेष साहित्यिक कृति उपलब्ध नहीं है। अपने जीवन के उत्तरार्ध में इनके द्वारा गाए गए तथा उसी क्षण इनके शिष्यों द्वारा लिखे गए लगभग 4000 'अभंग' आज उपलब्ध हैं। तुकाराम ने अपनी साधक अवस्था में संत ज्ञानेश्वर और नामदेव, इन पूर्वकालीन संतों के ग्रंथों का गहराई तथा श्रद्धा से अध्ययन किया था।
विषय सूची
परिचय
तुकाराम का जन्म दक्षिण के देहू नामक ग्राम में भगवद् भक्तों के एक पवित्र कुल में संवत 1665 विक्रमी (1608 ई.) में हुआ था। इनके माता-पिता का नाम कनकाबाई और बोलोजी था। तेरह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हो गया। वधू का नाम रखुमाई रखा गया, पर विवाह के बाद मालूम हुआ कि बहू को दमे की बीमारी है। इसलिये माता-पिता ने तुरंत ही इनका दूसरा विवाह कर दिया। दूसरी बहू का नाम पड़ा जिजाई। तुकाराम के दो और भाई थे, बड़े का नाम था सावजी और छोटे का नाम था कान्हजी।
गृहस्थी का भार तथा आर्थिक संकट
बोलोजी जब वृद्ध हुए, तब उन्होंने अपनी घर गृहस्थी और अपना काम-काज अपने बड़े पुत्र को सौंपना चाहा, पर वे विरक्त थे, अत: तुकाराम के ऊपर ही सारा भार आ पड़ा। उस समय इनकी अवस्था सत्रह वर्ष की थी। ये बड़ी दक्षता के साथ काम सम्हालने लगे। चार वर्ष तक सिलसिला ठीक चला। इसके बाद तुकाराम पर संकट-पर-संकट आने लगे। सबसे पहले माता-पिता ने साथ छोड़ा, जिससे ये अनाथ हो गये। उसके बाद बड़े भाई सावजी की स्त्री का देहान्त हो गया, जिसके कारण मानो सावजी का सारा प्रपंचपाश कट गया और वे पूर्ण विरक्त होकर तीर्थयात्रा करने चले गये तथा उधर ही अपना जीवन बिता दिया। बड़े भाई का छत्र सिर पर न होने से तुकाराम के कष्ट और भी बढ़ गये। घर-गृहस्थी के कामों से अब इनका भी मन उचटने लगा। इनकी इस उदासीन वृत्ति से लाभ उठाकर इनके जो कर्जदार थे, उन्होंने रुपये देने की कल्पना ही नहीं की और जो पावनेदार थे, वे पूरा तकाजा करने लगे। पैतृक सम्पत्ति अस्त-व्यस्त हो गयी। परिवार बड़ा था- दो स्त्रियां थीं, एक बच्चा था, छोटा भाई था और बहने थीं। इतने प्राणियों को कमाकर खिलाने वाले अकेले तुकाराम थे, जिनका मन-पंछी इस प्रपंच-पिंजर से उड़कर भागना चाहता था। इनकी जो दुकान थी, उससे लाभ के बदले नुकसान ही होने लगा और ये और भी दूसरों के कर्जदार बन गये। दीवाला निकलने की नौबत आ गयी।
एक बार आत्मीयों ने सहायता देकर इनकी बात रखी। दो-एक बार ससुर ने भी इनकी सहायता की, परंतु इनके उखड़े पैर फिर नहीं जमे। पारिवारिक सौख्य भी इन्हें नहीं के बराबर था- पहली स्त्री तो इनकी बड़ी सौम्य थी, पर दूसरी रात-दिन किच-किच लगाये रहती थी। घर में यह दशा और बाहर पावनेदारों का तकाजा। आखिर दीवाला निकल ही गया। तुकाराम की सारी साख धूल में मिल गयी। इनका दिल टूट गया। फिर भी एक बार हिम्मत करके मिर्चा खरीदकर उसे बेचने के लिये ये कोंकण गये। परंतु वहाँ भी लोगों ने इन्हें खूब ठगा। जो कुछ दाम वसूल हुए थे, उन्हें भी एक धूर्त ने पीतल के कड़े को, जिस पर सोने का मुलम्मा मात्र चढ़ा था, सोना बतलाकर, उसके बदले में ले लिया और वह चम्पत हो गया।
क्षमाशील और सहिष्णु
तुकाराम बड़े ही क्षमाशील और सहिष्णु थे। एक बार इनके खेत में कुछ गन्ने पके थे। ये उनका गट्ठर बांधकर ला रहे थे। रास्ते में बच्चे पीछे हो गये। उन्होंने गन्ने मांगने शुरू किये। ये प्रसन्नता से देते गये। अन्त में एक गन्ना बचा उसी को लेकर वे घर आये। भूखी पत्नी को बड़ा क्रोध आया। उसने गन्ना छीनकर इनकी पीठ पर दे मारा। गन्ना टूट गया। ये हंस पड़े। बोले- "तुम बड़ी साध्वी हो। हम दोनों के लिये मुझे गन्ने के दो टुकड़े करने पड़ते, तुमने बिना कहे ही कर दिये।" इससे इनकी क्षमाशीलता का पता लगता है। एक बार जिजाई ने अपने नाम से रुक्का लिखकर इन्हें दो सौ रुपये दिलाये, जिनसे इन्होंने नमक खरीदा और ढाई सौ रुपये बनाये। परंतु ज्यों ही उन्हें लेकर चले कि रास्ते में एक दुखिया मिला। उसे देखकर इन्हें दया आ गयी और सब रुपये उसे देकर निश्चिन्त हो गये।
पत्नी व पुत्र की मृत्यु
उन्हीं दिनों पूना प्रान्त में भयंकर अकाल पड़ा। अन्न-पानी के बिना सहस्त्रों मनुष्यों ने तड़प-तड़पकर प्राण त्याग दिये। इसके बाद तुकाराम की ज्येष्ठ पत्नी मर गयी और स्त्री के पीछे इनका बेटा भी चल बसा। दु:ख और शोक की हद हो गयी। दु:ख के इस प्रचण्ड दावानल से तुकाराम वैराग्य-कंचन होकर ही निकल सके। अब इन्होंने योगक्षेम का सारा भार भगवान पर रखकर भगवद्भजन करने का निश्चय कर लिया। घर में जो कुछ रुक्के रखे हुए थे, उनमें से आधे तो इन्होंने छोटे भाई को दे दिये और कहा- "देखो, बहुतों के यहाँ रकम पड़ी हुई है। इन रुक्कों से तुम चाहे वसूल करो या जो कुछ भी करो। तुम्हारी जीविका तुम्हारे हाथ में है।" इसके बाद तुकाराम ने बाकी आधे रुक्कों को अपने वैराग्य में बाधक समझा और उन्हें इन्द्रायणी के दह में फेंक दिया। अब इन्हें किसी की चिन्ता नहीं रही।
भजन-कीर्तन
तुकाराम भगवद् भजन में, कीर्तन में या कहीं एकान्त ध्यान में ही प्राय: रहने लगे। प्रात:काल नित्यकर्म से निवृत्त होकर ये विट्ठल भगवान के मन्दिर में जाते और वहीं पूजापाठ तथा सेवा करते। वहाँ से फिर इन्द्रायणी के उस पार कभी भागनाथ पर्वत पर और कभी गोण्डा या भाराडारा पर्वत पर चढ़कर वहीं एकान्त में 'ज्ञानेश्वरी' या 'एकनाथी भागवत' का पारायण करते और फिर दिनभर नाम-स्मरण करते रहते। संध्या होने पर गांव में लौटकर हरिकीर्तन सुनते, जिसमें लगभग आधी रात बीत जाती। इसी समय इनके घर का ही, श्रीविश्वम्भर बाबा का बनवाया हुआ श्रीविट्ठलमन्दिर बहुत जीर्ण-शीर्ण हो गया था। उसकी इन्होंने अपने हाथों से मरम्मत की। इस प्रकार की कठिन साधनाओं के फलस्वरूप तुकाराम की चित्तवृत्ति अखण्ड नाम-स्मरण में लीन होने लगी। भगवद् कृपा से कीर्तन करते समय इनके मुख से 'अभंग-वाणी' निकलने लगी। बड़े-बड़े विद्वान ब्राह्मण और साधु-संत इनकी प्रकाण्ड ज्ञानमयी कविताओं को इनके मुख से स्फुरित होते देखकर इनके चरणों में नत होने लगे।
भगवान के दर्शन
पूना से नौ मील दूर बाघोली नामक स्थान में एक वेद-वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित तथा कर्मनिष्ठ ब्राह्मण रहते थे। उनको तुकाराम की यह बात ठीक न जंची। तुकाराम जैसे शूद्र जाति वाले के मुख से श्रुत्यर्थबोधक मराठी अभंग निकलें और आब्राह्मण सब वर्णों के लोग उसे संत जानकर मानें तथा पूजें, यह बात उन्हें जरा भी पसंद न आयी। उन्होंने देहू के हाकिम से तुकाराम जी को देहू छोड़कर कहीं चले जाने की आज्ञा दिलायी। इस पर तुकाराम पण्डित रामेश्वर भट्ट के पास गये और उनसे बोले- "मेरे मुख से जो ये अभंग निकलते हैं, सो भगवान पाण्डुरंग की आज्ञा से ही निकलते हैं। आप ब्राह्मण हैं, ईश्वरवत हैं, आपकी आज्ञा है तो मैं अभंग बनाना छोड़ दूँगा, पर जो अभंग बन चुके हैं और लिखे रखे हैं, उनका क्या करूँ?" भट्ट जी ने कहा- "उन्हें नदी में डुबा दो।" ब्राह्मण की आज्ञा शिरोधार्य कर तुकाराम ने देहू लौटकर ऐसा ही किया। अभंग की सारी बहियां इन्द्रायणी के दह में डुबो दी गयीं। पर विद्वान ब्राह्मणों के द्वारा तुकाराम के भगवद्प्रेमोद्गार निषिद्ध माने जायें, इससे तुकाराम के हृदय पर बड़ी चोट लगी। उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और विट्ठल मन्दिर के सामने एक शिला पर बैठ गये कि या तो भगवान ही मिलेंगे या इस जीवन का ही अन्त होगा। इस प्रकार हठीले भक्त तुकाराम श्रीपाण्डुरंग के साक्षात दर्शन की लालसा लगाये, उस शिला पर बिना कुछ खाये-पीये तेरह दिन और तेरह रात पड़े रहे। अन्त में भक्तपराधीन भगवान का आसन हिला। तुकाराम के हृदय में तो वे थे ही, अब वे बालवेश धारण करके तुकाराम के समक्ष प्रकट हो गये। तुकाराम उनके चरणों में गिर पड़े। भगवान ने उन्हें दोनों हाथों से उठाकर छाती से लगा लिया। तत्पश्चात भगवान ने तुकाराम को बतलाया कि- "मैंने तुम्हारे अभंगों की बहियों को इन्द्रायणी के दह में सुरक्षित रखा था। आज उन्हें तुम्हारे भक्तों को दे आया हूँ।" यह कहकर भगवान फिर तुकाराम के हृदय में अन्तर्धान हो गये।
इस सगुण साक्षात्कार के पश्चात तुकाराम महाराज का शरीर पंद्रह वर्ष तक इस भूतल पर रहा और जब तक रहा, तब तक इनके मुख से सतत अमृतवाग्धारा की वर्षा होती रही। इनके स्वानुभवसिद्ध उपदेशों को सुन-सुनकर लोग कृतार्थ हो जाते थे। सब प्रकार के लोग इनके पास आते थे और सभी को ये अधिकार अनुसार उपदेश देते तथा साधन बतलाते थे। जिस समय इन्द्रायणी में अभंगों की बहियां डुबा दी गयी थीं, उसके कई दिनों बाद वे ही पण्डित रामेश्वर भट्ट पूना में श्रीनागनाथ जी का दर्शन करने जा रहे थे। रास्ते में वे अनगढ़शाह औलिया की बावली में नहाने के लिये उतरे। नहाकर जो ऊपर आये तो एकाएक उनके सारे शरीर में भयानक जलन पैदा हो गयी। वे रोने-पीटने और चिल्लाने लगे। शिष्यों ने बहुत उपचार किया, पर कोई लाभ नहीं हुआ। अन्त में जब ज्ञानेश्वर महाराज ने स्वप्न में उन्हें तुकाराम की शरण जाने के लिये कहा। तब वे दौड़कर तुकाराम जी की शरण गये। इस प्रकार रामेश्वर भट्ट जैसे प्रकाण्ड पण्डित, कर्मनिष्ठ और तेजस्वी ब्राह्मण भी तुकाराम जी को महात्मा मानकर उनका शिष्य होने में अपना कल्याण और गौरव मानने लगे। फिर भी तुकाराम जी पण्डित रामेश्वर भट्ट को देवता जानकर प्रणाम करते थे और उन्हें प्रणाम करने से रोकते थे।
छत्रपति शिवाजी की इच्छा
तुकाराम महाराज के सिद्ध उपदेश के अधिकारी बहुत लोग थे। छत्रपति शिवाजी महाराज तुकाराम जी को अपना गुरु बनाना चाहते थे, पर उनके नियत गुरु समर्थ रामदास स्वामी हैं, यह अन्तर्दृष्टि से जानकर तुकाराम ने उन्हें उन्हीं की शरण में जाने का उपदेश दिया। फिर भी शिवाजी महाराज इनकी हरिकथाएं बराबर सुना करते थे।
देहत्याग
तुकाराम महाराज के जीवन में लोगों ने अनेकों चमत्कार भी देखे। संवत 1706 चैत्र कृष्ण द्वितीय के दिन प्रात:काल तुकाराम महाराज इस लोक से विदा हो गये। उनका मृत शरीर किसी ने नहीं देखा, वह मृत हुआ भी नहीं। भगवान स्वयं उन्हें सदेह विमान में बैठाकर अपने वैकुण्ठधाम में ले गये। इस प्रकार वैकुण्ठ सिधारने के बाद भी श्री तुकाराम जी महाराज कई बार भगवद्भक्तों के सामने प्रकट हुए। देहू और लोहगांव में तुकाराम महाराज के अनेक स्मारक हैं, परंतु ये स्मारक तो जड़ हैं, उनका जीता-जागता और सबसे बड़ा स्मारक अभंग-समुदाय है। उनकी यह अभंग-वाणी जगत की अमूल्य और अमर आध्यात्मिक सम्पत्ति है। यह तुकाराम महाराज की वांगमयी मूर्ति है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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