विरह-पदावली -सूरदास
(175) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) यदि रात्रि घटे (समाप्त हो) तो (व्रज-) नारी शान्ति पाये। वह अंचल पर कुत्ते की मूर्ति बनाती है और उसे तारों का मार्ग दिखलाती है (कि उन तारों को दौड़कर खा ले)। कुमुदिनी (चन्द्र को सामने पाकर) हँसती (खिलती) है, पद्मिनी भी प्रसन्न होती है; क्योंकि उसके पास (उसमें बंद होकर) भौंरा (उसके) गुण गा रहा (गुंजार कर रहा) है। (हाँ) चकोरी और चकोर अपना (सुख-) भोग छोड़ देते (वियुक्त हो जाते) हैं, जबकि सूर्य पानी में अपना मुख छिपा लेता (अस्त हो जाता) है। अतः (गोपी) अपनी सुख-सम्पत्ति (शान्ति) के लिये कश्यप जी के पुत्र अरुण की मनौती मानती है कि (मैं तुम्हें) उसी समय अपना कंगन दे दूँगी (अथवा कुंकुम से कंगन के आकार का मंडल बनाकर तुम्हारी पूजा करूँगी) जब (अरुणोदय देखकर) मुर्गे बोलने लगें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |