तिन कौ अंतराइ हम करैं। ते सब अहनिसि हमसौ डरै।।
कबहूँ पुत्र मोह उपजावै। कबहूँ तिय के रूप लुभावै।।
भूख, प्यास ह्वै कबहुँ संतापे। ऐसी बिधि हम उनकौ ब्यापै।।
जो कोउ तुम्हरै सरननि आवै। सुख संसार सकल बिसरावै।।
तासौ हमरौ कछु न बसाइ। हमैं जीति सो तुम पै जाइ।।
सहज अप्सरा सुंदर रूप। एक एक तै अधिक अनूप।।
नारायन तहँ परगट करी। इंद्र अपसरा सोभा हरी।।
नारायन तहँ परगट करी। इंद्र अपसरा सोभा हरी।।
काम देखि चकित ह्वै गयौ। रूप दीख हम इनकौ नयौ।।
गुन जेते सबही इन माहिं। इन सब इंद्र लोक कोउ नाहि।।
तब नारायन आज्ञा करी। इनमैं लेहु एक सुदरी।।
नाम उर्वसी उन एक लीनी। पुनि प्रनाम हरि कौ तिन कीनी।।
सो सुरपति कौ दीन्ही जाइ। कह्यौ सकल ब्रत्तात सुनाइ।।
यौ भयौ नारायन अवतार। ‘सूर’ कह्यौ भागवतऽनुसार।। 3 ।।