तातैं सेइयै श्री जदुराई।
संपति विपति विपति तैं संपति देह कौ यहै सुभाइ।
तरुवर फूलै, फरै, पतझरै, अपने कालहिं पाइ।
सरवर नीर भरै, भरि उमड़ै, सूखै, खेह उड़ाइ।
दुतिया-चंद बढ़त ही बाढै, घटत-घटत घटि जाइ।
सूरदास संपदा-आपदा, जिनि कोऊ पतिआइ।।264।।
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