तब तैं मेरौ ज्यौ न रहि सकत।
जित देखौ तितहीं मृदु मूरत, नैननि में नित लागि रहत।।
ग्वाल-बाल सब संग लगाए, खेलत मैं करि भाव चलत।
अरुझि परयौ मेरौ मन तब तैं, कर झटकत चक-डोरि हलत।
अब मैं कहा करौं री सजनी सुरति होति तब मदन दहत।
सूर स्याम मेरौ मन हरि लियौ, सकुच छाँड़ि मैं तोहिं कहत।।671।।