तब तै मिटे सब आनंद।
या व्रज के सब भाग संपदा, लै जु गए नँदनंद।।
बिह्वल भई जसोदा डोलति, दुखित नंद उपनंद।
धेनु नहीं पय स्त्रवतिं रुचिर मुख, चरतिं नही तृण कंद।।
विषम वियोग दहत उर सजनी, बाढ़ि रहे दुख दंद।
सीतल कौन करै री माई, माहि इहाँ व्रजनंद।।
रथ चढ़ि चले गहे नहि काहु, चाहि रहीं मतिमंद।
‘सूरदास’ अब कौन छुड़ावै, परै बिरह कै फंद।। 3157।।