विरह-पदावली -सूरदास
(193) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) तब (पहिले मोहन हमारे लिये) किसलिये उपकार करने वाले हो गये (कि अब आते नहीं), पत्र लिख-लिखकर भेज रहे हैं। स्वयं तो जाकर मथुरा में बस गये और हमें योग का संदेश भेजते हैं और इस प्रकार जले पर नमक लगाते हैं। हम उनकी समझ से ऐसी तुच्छ हो गयी है। स्वामी के वियोग में व्याकुल (हम) वियोगिनियाँ जलती-जलती प्रज्वलित हो अँगीठी (की-राख) जैसी हो गयी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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