तपस्या का प्रभाव

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 51 में तपस्या के प्रभाव का वर्णन हुआ है।[1]

ब्रह्मा का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ब्रह्मा जी बोले- श्रेष्ठ महर्षियों! जिस प्रकार इन पाँचों महाभूतों की उत्पत्ति और नियमन करने में मन समर्थ है, उसी प्रकार स्थिति काल में भी मन ही भूतों का आत्मा है। उन पंचमहाभूतों का नित्य आधार भी मन ही है। बुद्धि जिसके ऐश्वर्य को प्रकाशित करती है, वह क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। जैसे सारथि अच्छे घोड़ों को अपने काबू में रखता है, उसी प्रकार मन सम्पूर्ण इन्द्रियों पर शासन करता है। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सदा क्षेत्रज्ञ के साथ संयुक्त रहते हैं। जिसमें इन्द्रियरूपी घोड़े जुते हुए हैं, जिसका बुद्धिरूपी सारथि द्वारा नियंत्रण हो रहा है, उस देहरूपी रथ पर सवार होकर वह भूतात्मा (क्षेत्रज्ञ) चारों ओर दौड़ लगाता रहता है। ब्रह्ममय रथ सदा रहने वाला और महान है, इन्द्रियाँ उसके घोड़े, मन सारथी और बुद्धि चाबुक हैं। इस प्रकार जो विद्वान इस ब्रह्ममय रथ की सदा जानकारी रखता है, वह समस्त प्राणियों में धीर है और कभी मोह में नहीं पड़ता है। यह जगत एक ब्रह्मवन है। अव्यक्त प्रकृति इसका आदि है। पाँच महाभूत, दस इन्द्रियाँ और एक मन- इन सौलह विशेषों तक इसका विस्तार है। यह चराचर प्राणियों से भरा हुआ है। सूर्य और चन्द्रमा आदि के प्रकाश से प्रकाशित है। ग्रह और नक्षत्रों से सुशोभित है। नदियों और पर्वत के समूह से सब ओर विभूषित है। नाना प्रकार के जल से सदा ही अलंकृत है। यहीं सम्पूर्ण भूतों का जीवन और सम्पूर्ण प्राणियों की गति है। इस ब्रह्मवन में क्षेत्रज्ञ विचरण करता है। इस लोक में जो स्थावर जंगम प्राणी हैं, वे ही पहले प्रकृति में विलीन होते हैं, उसके बाद पाँच भूतों के कार्य लीन होते हैं और कार्यरूपी गुणों के बाद पाँच भूत लीन होते हैं। इस प्रकार यह भूतसमुदाय प्रकृति में लीन होता है।

तपस्या का प्रभाव

देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पिशाच, असुर, राक्षस सभी स्वभाव से रचे गए हैं; किसी क्रिया से या कारण से इनकी रचना नहीं हुई है। विश्व की सृष्टि करने वाले ये मरीचि आदि ब्राह्मण समुद्र की लहरों के समान बारंबार पंचमहाभूतों से उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न हुए, वे फिर समयानुसार उन्हीं में लीन हो जाते हैं। इस विश्व की रचना करने वाले प्राणियों से पंच महाभूत सब प्रकार पर है। जो इन पंच महाभूतों से छूट जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। शक्ति सम्पन्न प्रजापति ने अपने मन के ही द्वारा सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की है तथा ऋषि भी तपस्या से ही देवत्व को प्राप्त हुए हैं। फल-मूल का भोजन करने वाले सिद्ध महात्मा यहाँ तपस्या के प्रभाव से ही चित्त को एकाग्र करके तीनों लोकों की बातों को क्रमश: प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। आरोग्य की साधनभूत औषधियाँ और नाना प्रकार की विद्याएँ तप से ही सिद्ध होती हैं। सारे साधनों की जड़ तपस्या ही है। जिसको पाना, जिसका अभ्यास करना, जिसे दबाना और जिसकी संगति लगाना नितान्त कठिन है, वह तपस्या के द्वारा ही साध्य हो जाता है; क्योंकि तप का प्रभाव दुर्लध्‍य है। शराबी, ब्रह्महत्यारा, चोर, गर्भ नष्ट करने वाला और गुरुपत्नी की शय्या पर सोने वाला महापापी भी भलीभाँति तपस्या करके उस महान पाप से छुटकारा पा सकता है।[1]

मनुष्य, पितर, देवता, पशु, मृग, पक्षी तथा अन्य जितने चराचर प्राणी हैं, वे सब नित्य तपस्या में संलग्न होकर ही सदा सिद्धि प्राप्त करते हैं। तपस्या के बल से ही महामायावी देवता स्वर्ग में निवास करते हैं। जो लोग आलस्य त्यागकर अहंकार से युक्त हो सकाम कर्म का अनुष्ठान करते हैं, वे प्रजापति के लोक में जाते हैं। जो अहंता-ममता से रहित हैं, वे महात्मा विशुद्ध ध्यान योग के द्वारा महान उत्तम लोक को प्राप्त करते हैं। जो ध्यान योग का आश्रय लेकर सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं, वे आत्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ पुरुष सुख की राशिभूत अव्यक्त परमात्मा में प्रवेश करते हैं। किन्तु जो ध्यानयोग से पीछे लौटकर अर्थात ध्यान में असफल होकर ममता और अहंकार से रहित जीवन व्यतीत करता है, वह निष्काम पुरुष भी महापुरुषों के उत्तम अव्यक्त लोक में लीन होता है। फिर स्वयं भी उसकी समता को प्राप्त होकर अव्यक्त से ही प्रकट होता है और केवल सत्त्व का आश्रय लेकर तमोगुण एवं रजोगुण के बन्धन से छुटकारा पा जाता है। जो सब पापों से मुक्त रहकर सबकी सृष्टि करता है, उस अखण्ड आत्मा को क्षेत्रज्ञ समझना चाहिए। जो मनुष्य उसका ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वही वेदवत्ता है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 51 श्लोक 1-18
  2. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 51 श्लोक 19-36

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