ज्ञानी पुरुष की स्थिति तथा अध्वर्यु और यति का संवाद

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 28 में ज्ञानी पुरुष की स्थिति तथा अध्वर्यु और यति के संवाद का वर्णन हुआ है।[1]

ब्राह्मण का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ज्ञानी पुरुष की स्थिति तथा अध्वर्यु और यति का संवाद[2] ब्राह्मण कहते हैं- मैं न तो गन्धें को सूघँता हूँ, न रसों का आस्वादन करता हूँ, न रूप को देखता हूँ, न किसी वस्तु का स्पर्श करता हूँ, न नाना प्रकार के शब्दों को सुनता हूँ और न कोई संकल्प ही करता हूँ। स्वभाव ही अभीष्ट पदार्थों की कामना रखता है, स्वभाव ही सम्पूर्ण द्वेष्य वस्तुओं के प्रति द्वेष करता है। जैसे प्राण और अपान स्वभाव से ही प्राणियों के शरीरों में प्रविष्ट होकर अन्न पाचन आदि का कार्य करते रहते हैं, उसी प्रकार स्वभाव से ही राग और द्वेष की उत्पतित होती है। तात्पर्य यह कि बुद्धि आदि इन्द्रियाँ स्वभाव से ही पदार्थों में बर्त रही हैं। इन बाह्य इन्द्रियों और विषयों से भिन्न जो स्वप्न और सुषुप्ति के वासनामय विषय एवं इन्द्रियाँ हैं तथा उनमें भी जो नित्यभाव हैं, उनसे भी विलक्षण जो भूतात्मा है, उसको शरीर के भीतर योगीजन देख पाते हैं। उसी भूतात्मा में स्थित हुआ मैं कहीं किसी तरह भी काम, क्रोध, जरा और मृत्यु से ग्रस्त नहीं होता। मैं सम्पूर्ण कामनाओं में से किसी की कामना नहीं करता। समस्त दोषों से भी कभी द्वेष नहीं करता। जैसे कमल के पत्तों पर जल बिन्दु का लेप नहीं होता, उसी प्रकार मेरे स्वभाव में राग और द्वेवष का स्पर्श नहीं है। जिनका स्वभाव बहुत प्रकार का है, उन इन्द्रिय आदि को देखने वाले इस नित्यस्वरूप आत्मा के लिये सब भोग अनित्य हो जाते हैं। अत: वे भोगसमुदाय उस विद्वान को उसी प्रकार कर्मों में लिप्त नहीं कर सकते, जैसे आकाश में सूर्य की किरणों का समुदाय सूर्य को लिप्त नहीं कर सकता। यशस्विनि! इस विषय में अध्वर्यु यति के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, तुम उसे सुनो। किसी यज्ञ कर्म में पुशु का प्रोक्षण होता देख वहीं बैठे हुए यति ने अध्वर्यु से उसकी निन्दा करते हुए कहा- ‘यह हिंसा है (अत: इससे पाप होगा)’।

अध्वर्यु और यति का संवाद

अध्वर्यु ने यति को इस प्रकार उत्तर दिया- ‘यह बकरा नष्ट नहीं होगा। यदि ‘पशुर्वै नीयमान:’ इत्यादि श्रुति सत्य है तो यह जीवन कल्याण का ही भागी होगा। ‘इसके शरीर का जो पार्थिव भाग है, वह पृथ्वी में विलीन हो जायगा। इसका जो कुछ भी जलीय भाग हैं, वह जल में प्रविष्ट हो जायगा। ‘नेत्र सूर्य में, कान दिशाओं में और प्राण आकाश में ही लय को प्राप्त होगा। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार बर्ताव करने वाले मुझ को कोई दोष नहीं लगेगा’। यति ने कहा- यदि तुम बकरे के प्राणों का वियोग हो जाने पर भी उसका कल्याण ही देखते हो, तब तो यह यज्ञ उस बकरे के लिये ही हो रहा है। तुम्हारा इस यज्ञ से क्या प्रयोजन है? श्रुति कहती है ‘पशो! इस विषय में तुझे तेरे भाई, पिता, माता और सखा की अनुमति प्राप्त होनी चाहिये।’ इस श्रुति के अनुसार विशेषत: पराधीन हुए इस पशु को ले जाकर इसके पिता माता आदि से अनुमति लो (अन्यथा तुझे हिंसा का दोष अवश्य प्राप्त होगा)।[1] पहले तुम्हें इस पशु के उन सम्बन्धियों से मिलना चाहिये। यदि वे भी ऐसा ही करने की अनुमति दे दें, तब उनका अनुमोदन सुनकर तदनुसार विचार कर सकते हो। तुमने इस छाग की इन्द्रियों उनके कारणों में विलीन कर दिया है। मेरे विचार से अब तो केवल इसका निश्चेष्ट शरीर ही अवशिष्ट रह गया है। यह चेतनाशून्य जड शरीर ईंधन ही समान है, उससे हिंसा के प्रायश्चित की इच्छा से यज्ञ करने वालों के लिये ईंधन ही पशु है।[3] वृद्ध पुरुषों का यह उपदेश है कि अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है, जो कार्य हिंसा से रहित हो वही करने योग्य है, यही हमारा मत है। इसके बाद भी यदि मैं कुछ कहूँ तो यही कह सकता हूँ कि सबको यह प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि ‘मैं अंहिसा धर्म का पालन करूँगा।’ अन्यथा आपके द्वारा नाना प्रकार के कार्य दोष सम्पादित हो सकते हैं। किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही हमें सदा अच्छा लगता है।

हम प्रत्यक्ष फल के साधक हैं, परोक्ष की उपासना नहीं करते हैं। अध्वर्यु ने कहा- यते! यह तो तुम मानते ही हो कि सभी भूतों में प्राण है, तो भी तुम पृथ्वी के गन्ध गुणों का उपभोग करते हो, जलमय रसों को पीते हो, तेज के गुण? रूप का दर्शन करते हो और वायु के गुण स्पर्श को छूते हो, आकाशजनित शब्दों को सुनते हो और मन से मति का मनन करते हो। एक ओर तो तुम किसी प्राणी के प्राण लेने के कार्य से निवृत्त हो और दूसरी ओर हिंसा में लगे हुए हो। द्विजवर! कोई भी चेष्टा हिंसा के बिना नहीं होती। फिर तुम कैसे समझते हो कि तुम्हारे द्वारा अहिंसा का ही पालन हो रहा है? यति ने कहा- आत्मा के रूप हैं- एक अक्षर और दूसरा क्षर। जिसकी सत्ता तीनों कालों में कभी नहीं मिटती वह सत्स्वरूप अक्षर (अविनाशी) कहा गया है तथा जिसका सर्वथा और सभी कालों में अभाव है, वह क्षर कहलाता है। प्राण, जिह्वा, मन और रजोगुण सहित सत्त्वगुण- ये रज अर्थात माया सहित सद्भाव हैं। इन भावों से मुक्त निर्द्वन्द्व, निष्काम, समस्त प्राणियों के प्रति संंभाव रखने वाले, ममता रहित, जितात्मा तथा सब ओर से बन्धन शून्य पुरुष को कभी और कहीं भी भय नहीं होता। अध्वर्यु ने कहा- बुद्धिमान में श्रेष्ठ यते! इस जगत में आप जैसे साधु पुरुषों के साथ ही निवास करना उचित है। आपका यह मत सुनकर मेरी बुद्धि में भी ऐसी ही प्रतीति हो रही है। भगवन! विप्रवर! मैं आपकी बुद्धि से ज्ञान सम्मन्न होकर यह बात कह रहा हूँ कि वेद मंत्रों द्वारा निश्चित किये हुए व्रत का ही मैं पालन कर रहा हूँ। अत: इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। ब्राह्मण कहते हैं- प्रिये! अध्वर्यु की दी हुई युक्ति से वह यति चुप हो गया और फिर कुछ नहीं बोला। फिर अध्वर्यु भी मोह रहित होकर उस महायज्ञ में अग्रसर हुआ। इस प्रकार ब्राह्मण मोक्ष का ऐसा ही अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप बताते हैं और तत्त्दर्शी पुरुष के उपदेश के अनुसार उस मोक्ष धर्म को जानकर उसका अनुष्ठान करते हैं।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-12
  2. यह अध्याय क्षेपक हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि इसमें बात कही गयी है कि बुद्धि और इन्द्रियों में राग द्वेश के रहते हुए भी विद्वान कर्मों में लिप्त नहीं होता और यज्ञ में पशु हिंसा का दोष नही लगता। किंतु यह कथन युक्ति विरुद्ध है।
  3. अत: जो कमा ईधन से होता है, उसके लिये पशु हिंसा क्यों की जाय?
  4. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 28 श्लोक 13-28

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