विरह-पदावली -सूरदास
(247) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- ‘अरे पपीहा!) काश तू (यहाँ से) तनिक भी उड़ जाता (तो कितना उत्तम होता)। अरे! (ज़रा तो) वियोगिनी के शरीर (दशा) का विचार कर, रात-दिन वन में क्या बकता (बोलता) है? मीठे स्वरों में नाना प्रकार की बोली बोलकर यहाँ किसे रिझाता (प्रसन्न करता) है? अरे कोकिल! क्रूर पशु के समान अपने प्रियतम से विमुख (वियुक्त) हम पर इतना क्यों रुष्ट होता है? यहाँ (तेरी बात) कोई सुनता-समझता नहीं, सब वियोग की पीड़ा से व्याकुल हैं। अरे श्याम के लौटने की अवधि तक हमारे शरीर को रख ले, मदन-मुख बनकर (कामदेव को उत्तेजित करने वाले शब्द बोलकर) हमें खा मत। तेरा शरीर भी तो जला दिखायी पड़ता है, फिर (तुझे) समझाकर क्या कहूँ? कृपा करके स्वामी से वियुक्त व्रज में चुप रहें एक बदले (मूल्य) में मुझे खरीद ले (कृतज्ञ बना ले)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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