जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 135 में जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर का प्रस्न

वैशम्पायन जी कहते हैं जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- भरतनन्दन! इस जगत में ब्राह्मण को किनके यहाँ भोजन करना चाहिये, क्षत्रिय को किनके घर का अन्न ग्रहण करना चाहिये तथा वैश्य और शूद्र को किन-किन लोगों के घर भोजन करना चाहिये?

अन्न ग्रहण करने योग्य मनुष्य का वर्णन

भीष्म जी ने कहा- बेटा! इस लोक में ब्राह्मण को ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के घर भोजन करना चाहिये। शूद्र के घर भोजन करना उसके लिये निषिद्ध है। इसी प्रकार क्षत्रिय को ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के घर ही भोजन ग्रहण करना चाहिये। भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न करके सब कुछ खाने वाले और शास्त्र के विरुद्ध आचरण करने वाले शूद्रों का अन्न उसके लिये भी त्याज्य है। वैश्यों में भी जो नित्य अग्निहोत्र करने वाले, पवित्रता से रहने वाले और चातुर्मास्य-व्रत का पालन करने वाले हैं, उन्हीं का अन्न ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिये ग्राह्य है। जो द्विज शूद्रों के घर का अन्न खाता है, वह समस्त पृथ्वी और सम्पूर्ण मनुष्यों के मल का ही पान और भक्षण करता है। जो शूद्रों का अन्न खाता है, वह पृथ्वी का मल खाता है। शूद्रान्न भोजन करने वाले सभी द्विज पृथ्वी का मल ही खाते हैं। जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शूद्र के कर्मों में संलग्न रहने वाला हो, वह यदि विशिष्ट कर्म-संध्या-वन्दन आदि में संलग्न रहने वाला हो, तो भी नरक में पकाया जाता है। यदि शूद्र के कर्म न करके भी वह शास्त्र विरुद्ध कर्म में संलग्न रहता हो तो भी उसे नरक की यातना भोगनी पड़ती है। ब्राह्मण वेदों के स्वाध्याय में तत्पर और मनुष्यों के लिये मंगलकारी कार्य में लगे रहने वाले होते हैं। क्षत्रिय को सबकी रक्षा में तत्पर बताया गया है और वैश्य को प्रजा की पुष्टि के लिये कृषि, गोरक्षा आदि कार्य करने चाहिये। वैश्य जो कर्म करता है, उसका आश्रय लेकर सब लोग जीविका चलाते हैं। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- ये वैश्य के अपने कर्म हैं। इससे उसको घृणा नहीं होनी चाहिये। जो वैश्य अपना कर्म छोड़कर शूद्र का कर्म करता है, उसे शूद्र के समान ही जानना चाहिये और उसके यहाँ कभी भोजन नहीं करना चाहिये।

अन्न न ग्रहण करने योग्य मनुष्य का वर्णन

जो चिकित्सा करने वाला, शस्त्र बेचकर जीविका चलाने वाला, ग्रामाध्यक्ष, पुरोहित, वर्ष फल बताने वाला ज्योतिषी और वेद-शास्त्र से भिन्न व्यर्थ की पुस्तकें पढ़ने वाला है, वे सबके सब ब्राह्मण शूद्र के समान हैं। जो निर्लज्ज मनुष्य शूद्रोचित कर्म करने वाले इन द्विजों के घर भोजन करता है, वह अभक्ष्य-भक्षण का पाप करके दारुण भय को प्राप्त होता है। उसके कुल, वीर्य और तेज नष्ट हो जाते हैं तथा वह धर्म-कर्म से हीन होकर कुत्ते की भाँति तिर्यक योनि में पड़ जाता है। जो चिकित्सा करने वाले वैद्य का अन्न खाता है, उसका वह अन्न विष्ठा के समान है। व्यभिचारिणी स्त्री या वेश्या का अन्न मूत्र के समान है। कारीगर का अन्न रक्त के तुल्य है। जो साधु पुरुषों द्वारा सम्मानित पुरुष विद्या बेचकर जीविका चलाने वाले ब्राह्मण का अन्न खाता है, उसका वह अन्न भी शूद्रान्न के ही समान है। अतः साधु पुरुष को उसका परित्याग कर देना चाहिये। जो कलंकित मनुष्य का अन्न ग्रहण करता है, उसे रक्त का कुण्ड कहते हैं। जो चुगुलखोर के यहाँ भोजन करता है, उसका वह भोजन करना ब्रह्म हत्या के समान माना गया है। असत्कार और अवहेलनापूर्वक मिले हुए भोजन को कभी नहीं ग्रहण करना चाहिये। जो ब्राह्मण ऐसे अन्न को भोजन करता है, वह रोगी होता है और शीघ्र ही उसके कुल का संहार हो जाता है। जो नगर रक्षक का अन्न खाता है, वह चण्डाल के समान होता है। गो वध, ब्राह्मण वध, सुरापान और गुरुपत्नी गमन करने वाले मनुष्य के यहाँ भोजन कर लेने पर ब्राह्मण राक्षसों के कुल की वृद्धि करने वाला होता है। धरोहर हड़पने वाले, कृतघ्न तथा नपुंसक का अन्न खा लेने से मनुष्य मध्य देशबहिष्कृत भीलों के घर में जन्म लेता है। कुन्तीनन्दन! जिनके यहाँ खाना चाहिये और जिनके यहाँ नहीं खाना चाहिये, ऐसे लोगों का मैंने विधिवत परिचय दे दिया। अब मुझसे और क्या सुनना चाहते हो।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 135 श्लोक 1-21

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दान-धर्म-पर्व
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अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान 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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की 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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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