विरह-पदावली -सूरदास
राग धनाश्री (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) अब यहाँ प्रेम कहाँ है। जहाँ कामदेव के समान सुन्दर मूर्ति वाले श्यामसुन्दर हैं, वहीं मुझे लिवा चल। उनकी घुँघराली अलकें, (कानों में मकराकृत कुण्डल और सुन्दर बड़े-बड़े नेत्र हैं, काल ओष्ठ हैं, मनोहर नासिका है तथा चन्द्रमा के समान ललाट पर सूर्य-सा (गोरोचन का) तिलक लगा है। जब वे रसमय वाणी बोलते हैं, तब (उनके) दाँतों की कान्ति बिजली के समान चमकती है तथा वक्षःस्थल वनमाला (इस प्रकार) अद्भुत शोभा दे रही है, जैसे तमाल-वृक्ष पर स्वर्णलता चढ़ी हो। मेघ के समान शरीर पर पीताम्बर (इस भाँति) अत्यन्त सुशोभित है, मानो कमल के पराग से मण्डित भ्रमर हो। उन्होंने विशाल भुजाओं से वेष्टितकर (मुझे इस प्रकार) आलिंगन दिया, मानो चन्दन के वृक्ष में साँप लिपट गया हो। यह महान् सुख (मुझे) सोते समय स्वप्न में मिला, (जिसे) मैं मन में सत्य समझकर जाग गयी। (अब) स्वामी से प्रत्यक्ष मिलने के लिये चातक के समान रट लग रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह पद काँकरौली की दो हस्तलिखित तथा नवलकिशोर प्रेस लखनऊ की मुद्रित प्रतियों में मिलता है। वहाँ पाठ है- 'अब वे इहाँ हे, ते कहाँ।' जो स्वप्नदशा का बोधक है। द्वितिय पंक्ति का पाठ भी उपयुक्त है- 'जहँ वे स्याम मदन-मूरति सखि, लै चलि मोहि तहाँ।' अर्थ-संगति भी ठीक है, जिसे नवीं और दसवीं पंक्तियाँ स्पष्ट कर रही हैं।
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |