च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 53 में च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा का वर्णन हुआ है।[1]

कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। च्यवन मुनि के अन्तर्धान हो जाने पर राजा कुशिक और उनकी महान सौभाग्यशालिनी पत्नी ने क्या किया? यह मुझे बताइये।।

भीष्म जी ने कहा- राजन। पत्नी सहित भूपाल ने बहुत ढूंढने पर भी जब ऋषि को नहीं देखा तब वे थक कर लौट आये। उस समय उन्हें बड़ा संकोच हो रहा था। वे अचेत से हो गये थे। वे दीन भाव से पुरी में प्रवेश करके किसी से कुछ बोले नहीं। केवल च्यवन मुनि के चरित्र पर मन-ही-मन विचार करने लगे। राजा ने सूने मन से जब घर में प्रवेश किया तब भृगु नन्दन महर्षि च्यवन को पुनः उसी शैय्या पर सोते देखा। उन महर्षि को देखकर उन दोनों को वड़ा विस्मय हुआ। वे उस आश्‍चर्य जनक घटना पर विचार करके चकित हो गये। मुनि के दर्शन से उन दोनों की सारी थकावट दूर हो गयी। वे फिर यथा स्थान खड़े होकर मुनि के पैर दबाने लगे। अबकी बार वे महामुनि दूसरी करवट से सोये थे। शक्तिशाली च्यवन मुनि फिर उतने ही समय में सो कर उठे। राजा और रानी उनके भय से शंकित थे, अतः उन्होंने अपने मन में तनिक भी विकार नहीं आने दिया। भारत प्रजानाथ। जब वे मुनि जागे, तब राजा और रानी से इस प्रकार बोले- तुम लोग मेरे शरीर में तेल की मालिश करो क्योंकि अब मैं स्नान करूंगा। यद्यपि राजा-रानी भूख-प्यास से पीड़ित और अत्यन्त दुर्बल हो गये थे तो भी ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे राजदम्पति सौ बार पकाकर तैयार किये हुए बहूमूल्य तेल को लेकर उनकी सेवा में जुट गये। ऋषि आनन्द से बैठ गये और वे दोनों दम्पति मौन हो उनके शरीर में तेल मलने लगे। परंतु महातपस्वी भृगु च्यवन ने अपने मुंह से एक बार भी नहीं कहा कि ‘बस, अबरहने दो, तेल की मालिश पूरी हो गयी।’ भृगुपुत्र ने इतने पर भी जब राजा और रानी के मन में कोई विकार नहीं देखा तब सहसा उठकर वे स्नानागार में चले गये। भरतश्रेष्ठ। वहाँ स्नाना के राजोचित सामग्री पहले से ही तैयार करके रखी गयी थी; किंतु उस सारी सामग्री की अवहेलना करके- उसका किंचित भी उपयोग न करके वे मुनि पुनः राजा के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये; तो भी उन पति-पत्नि ने उनके प्रति दोष-दृष्टि नहीं की। कुरुनन्दन। तदनन्तर शक्तिशाली भगवान च्यवन मुनि पत्नि सहित राजा कुशिक को स्नान करके सिंहासन पर बैठे दिखाई दिये। उन्हें देखते ही पत्नि सहित राजा का मुख प्रसन्‍नता से खिल उठा। उन्होंने निर्विकार भाव से मुनि के पास जाकर विनय पूर्वक यह निवेदन किया कि‘ भोजन तैयार है।’ तब मुनि ने राजा से कहा- ‘ले आओ’। आज्ञा पाकर पत्नि सहित नरेश ने मुनि के सामने भोजन-सामग्री प्रस्तुत की। नाना प्रकार के फलों के गूदे, भाँति के साग, अनेक प्रकार के व्यंजन, हल्के पेय पदार्थ, स्वादिष्ठ पूए, विचित्र मोदक (लड्डू), खांड़, नाना प्रकार के रस, मुनियों के खाने योग्य जंगली कंद-मूल, विचित्र फल, राजाओं के उपभोग में आने वाले अनेक प्रकार के पदार्थ, वेर, इंगुद, काष्मर्य, भल्लातक फल तथा गृहस्थों और वानप्रस्थों के खाद्य पदार्थ- सब कुछ राजा ने शाप के डर से मंगाकर प्रस्तुत कर दिया था।[1]

यह सब सामग्री च्यवन मुनि के आगे परोस कर रखी गयी। मुनि वह सब लेकर उसको तथा शैय्या तथा आसन को भी सुन्दर वस्त्रों से ढक दिया। इसके बाद भृगुनन्दन च्यवन ने भोजन-सामग्री के साथ उन वस्त्रों में भी आग लगा दी। परंतु उन परम बुद्धिमान दम्पति न उन पर क्रोध नहीं प्रकट किया। उन दोनों के देखते-ही-देखते वे मुनि फिर अन्तर्धान हो गये। वे श्रीमान राजर्षि अपनी स्त्री के साथ उसी तरह वहाँ रात भर चुपचाप खड़े रह गये; किंतु उनके मन में क्रोध का आवेश नहीं हुआ। प्रतिदिन भाँति-भाँति का भोजन तैयार करके राजभवन में मुनि के लिये परोसा जाता, अच्छे-अच्छे पलंग विछाये जाते तथा स्नान के लिये बहुत-से पात्र रखे जाते। अनेक प्रकार के वस्त्र ला-ला कर उनकी सेवा में समर्पित किये किये जाते थे। जब ब्रह्मर्षि च्यवन मुनि इन सब कार्यो में कोई छिद्र न देख सके, तब फिर राजा कुशिक से बोले- ‘तुम स्त्री सहित रथ में जुत जाओ और मैं जहाँ कहूँ, वहाँ मुझे शीघ्र ले चलो।’ तब राजा ने निःशंक होकर उन तपोधन से कहा- ‘बहुत अच्छा, भगवन। क्रीड़ा का रथ तैयार किया जाये या युद्ध के उपयोग में आने वाला रथ?’ हर्ष में भरे हुए राजा के इस प्रकार पूछने पर च्यवन मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले उन नरेश से कहा- ‘राजन। तुम्हारा जो युद्वोपयोगी रथ है, उसी को शीघ्र तैयार करो। उसमें नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र रखे रहें। पताका, शक्ति और सुवर्णदण्ड विद्यमान हों। ‘उसमें लगी हुई छोटी-छोटी घंटियों के मधुर शब्द सब ओर फैलते रहें। वह रथ वन्दनवारों से सजाया गया हो। उसके ऊपर जाम्बूनद नामक सुवर्ण जड़ा हुआ हो तथा उसमें अच्छे-अच्छे सैकड़ों बाण रखे गये हों।’ तब राजा ‘जो आज्ञा’ कहकर गये और एक विशाल रथ तैयार करके ले आये। उसमें बायीं ओर का बोझ ढोने के लिये रानी को लगाकर स्वयं वे दाहिनी ओर जुट गये। उस रथ पर उन्होंने एक ऐसा चाबुक भी रख दिया, जिसमें आगे की ओर तीन दण्ड थे और जिसका अग्रभाग सूई की नोंक के समान तीखा था। यह सब सामान प्रस्तुत करके राजा ने पूछा- ‘भगवान। भृगुनन्दन। बताइये, यह रथ कहाँ जाये? ब्रह्मर्षें। आप जहाँ कहेंगे, वहीं आपका रथ चलेगा।’

कुशिक तथा रानी द्वारा च्यवन मुनि की आज्ञा का पालन करना

राजा के ऐसा पूछने पर भगवान च्यवन मुनि ने उनके कहा- यहाँ से तुम बहुत धीरे-धीरे एक-एक कदम उठाकर चलो। यह ध्यान रखो कि मुझे कष्‍ट न हो पाये। तुम दोनों की मेरी मर्जी के अनुसार चलना होगा। तुम लोग इस प्रकार रथ को ले चलो जिससे मुझे अधिक आराम मिले और सब लोग देखें। रास्ते से किसी राहगीर को हटाना नहीं चाहिये, मैं उन सब को धन दूंगा। मार्ग में जो ब्राह्मण मुझसे जिस वस्तु की प्रार्थना करेंगे मैं उनको वही वस्तु प्रदान करूंगा। मैं सबको उनकी इच्छा के अनुसार धन और रत्न बाटूंगा। अतः इन सब के लिये पूरा-पूरा प्रबंध कर लो। पृथ्वीनाथ। इसके लिये मन में कोई विचार न करो। मुनि का यह वचन सुनकर राजा ने अपने सेवकों से कहा- ‘ये मुनि जिस-जिस वस्तु के लिये आज्ञा दें, वह सब निःशंक होकर देना।[2]

राजा की इस आज्ञा के अनुसार नाना प्रकार के रत्न, स्त्रियाँ, वाहन, बकरे, भेड़े, सोने के अलंकार, सोना और पर्वतोपम गजराज- ये सब मुनि के पीछे-पीछे चले। राजा के सम्पूर्ण मंत्री भी इन वस्तुओं के साथ थे। उस समय सारा नगर आर्त होकर हाहाकार कर रहा था। इतने ही में मुनि ने सहसा चाबुक उठाया और उन दोनों की पीठ पर जोर से प्रहार किया। उस चाबुक का अग्र भाग बड़ा तीखा था, उसकी करारी चोट पड़ते ही राजा-रानी की पीठ और कमर में घाव हो गया फिर भी वे निर्विकार भाव से रथ ढोते रहे। पचास रात तक उपवास करने के कारण वे बहुत दुबले हो गये थे, उनक सारा शरीर काँप रहा था; तथापि वे वीर दम्पति किसी प्रकार साहस करके उस विशाल रथ का बोझ ढो रहे थे। महाराज। वे दोनों बहुत घायल हो गये थे। उनकी पीठ पर जो अनेक घाव हो गये थे उनसे रक्त बह रहा था। खून से लथपथ होने कारण वे खिले हुए पलाश के फूलों के समान दिखाई देते थे। पुरवासियों का समुदाय उन दोनों की यह दुर्दशा देखकर शोक से अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। सब लोग मुनि के शाप से डरते थे; इसलिये कोई कुछ बोल नहीं रहा था। दो-दो आदमी अलग-अलग खड़े होकर आपस में कहने लगे- ‘भाइयों। सब लोग मुनि की तपस्या का बल तो देखो, हम लोग क्रोध में भरे हुए हैं तो भी मुनिश्रेष्ठ की ओर यहाँ आंख उठाकर देख भी नहीं सकते। ‘इन विशुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षि भगवान च्यवन की तपस्या का बल अद्भुत है। तथा महाराज और महारानी का धर्य भी कैसा अनूठा है। यह अपनी आंखो देख लो। ‘ये इतने थके होने पर भी कष्ट उठाकर इस रथ को खींचे जा रहे हैं। भृगुनन्दन च्यवन अभी तक इनमें कोई विकार नहीं देख सके हैं। [3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 53 श्लोक 1-20
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 53 श्लोक 21-39
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 53 श्लोक 40-56

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प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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