श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी175. ठाकुर नरोत्तमदास जी
लोकनाथप्रियं धीरं लोकातीतं च प्रेमदम्। पद्मा नदी के किनारे पर खेतरी नाम की एक छोटी सी राजधानी है। उसी राज्य में स्वामी श्री कृष्ण नन्ददत्त मजूमदार के यहाँ नारायणी देवी के गर्भ से ठाकुर नरोत्तमदास जी का जन्म हुआ। ये बाल्यकाल से ही विरक्त थे। घर में अतुल ऐश्वर्य था, सभी प्रकार के संसारी सुख थे, किन्तु इन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। ये वैष्णवों के द्वारा श्रीगौरांग की लीलाओं का श्रवण किया करते थे। श्रीरूप तथा सनातन और श्री रघुनाथदास जी के त्याग और वैराग्य की कथाएँ सुन-सुनकर इनका मन राज्य, परिवार तथा धन-सम्पत्ति से एकदम फिर गया। ये दिन-रात श्री गौरांग की मनोहर मूर्ति का ही ध्यान करते रहे। सोते-जागते, उठते-बैठते इन्हें चैतन्यलीलाएँ ही स्मरण होने लगीं। घर में इनका चित्त एकदम नहीं लगता था। इसलिये ये घर को छोड़कर कहीं भाग जाने की बात सोच रहे थे। गौरांग महाप्रभु तथा उनके बहुत-से प्रिय पार्षद इस संसार को त्यागकर वैकुण्ठवासी बन चुके थे। बालक नरोत्तमदास कुछ निश्चित न कर सके कि किसके पास जाऊँ। पण्डित गोस्वामी, स्वरूपदामोदर, नित्यानन्द जी, अद्वैताचार्य तथा सनातन आदि बहुत से प्रभुपार्षद इस संसार को छोड़ गये थे। अब किसकी शरण में जाने से गौरप्रेम की उपलब्धि हो सकेगी– इसी चिन्ता में ये सदा निमग्न रहते। एक दिन स्वप्न में इन्हें श्रीगौरांग ने दर्शन दिये और आदेश दिया कि– ‘तुम वृन्दावन में जाकर लोकनाथ गोस्वामी के शिष्य बन जाओ’। बस, फिर क्या था, ये एक दिन घर से छिपकर वृन्दावन के लिये भाग गये और वहाँ श्री जीवगोस्वामी के शरणापन्न हुए। इन्होंने अपने स्वप्न का वृत्तान्त जीवगोस्वामी को सुनाया। इसे सुनकर उन्हें प्रसन्नता भी हुई और कुछ खेद भी। प्रसन्नता तो इनके राज-पाट, धन-धान्य तथा कुटुम्ब-परिवार के परित्याग और वैराग्य के कारण हुई। खेद इस बात का हुआ कि लोकनाथ गोस्वामी किसी को शिष्य बनाते ही नहीं। शिष्य न बनाने का उनका कठोर नियम है। श्री लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ गोस्वामी दोनों ही महाप्रभु के संन्यास लेने से पूर्व ही उनकी आज्ञा से वृन्दावन में आकर चीरघाट पर एक कुंजकुटीर बनाकर साधन-भजन करते थे। लोकनाथ गोस्वामी का वैराग्य बड़ा ही अलौकिक था। वे कभी किसी से व्यर्थ की बातें नहीं करते। प्राय: वे सदा मौन से ही बने रहते। शान्त एकान्त स्थान में वे चुपचाप भजन करते रहते, स्वत: ही कुछ थोड़ा-बहुत प्राप्त हो गया, उसे पा लिया, नहीं तो भूखे ही पड़े रहते। शिष्य न बनाने का इन्होंने कठोर नियम कर रखा था, इसलिये आज तक इन्होंने किसी को भी मंत्र दीक्षा नहीं दी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीलोकनाथ गोस्वामी के परम प्रिय शिष्य, महाधैर्यवान् और लोकातीत कर्म करने वाले उन श्री नरोत्तमदास जी के चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ, जो राज-पाट को छोड़कर विरक्त बनकर लोगों को प्रेमदान देते रहे।