श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी172. महाप्रभु का अदर्शन अथवा लीलासंवरण
अद्यैव हसिंतं गीतं पठितं यै: शरीरिभि:। महाभारत में स्थान-स्थान पर क्षात्रधर्म की निन्दा की गयी है। युद्ध में खड़ग लेकर जो क्षत्रिय अपने भाई-बन्धुओं और सगे-सम्बन्धियों का बात की बात में वध कर सकता है, ऐसे कठोर धर्म को धर्मराज युधिष्ठिर ऐसे महात्मा ने पर निन्द्य बताकर भी उसमें प्रवृत्त होने के लिये अपनी विवशता बतलायी है। किन्तु क्षात्र धर्म से भी कठोर और क्रूर कर्म हम-जैसे क्षुद्र लेखकों का है, जिनके हाथ में वज्र के समान बलपूर्वक लोहे की लेखनी दे दी जाती है और कहा जाता है कि उस महापुरुष की अदर्शन-लीला लिखो ! हाय ! कितना कठोर कर्म है, हृदय को हिला देने वाले इस प्रसंग का वर्णन हमसे क्यों कराया जाता है? कल तक जिसके मुखकमल को देखकर असंख्य भावुक भक्त भक्ति भागीरथी के शीतल और सुखकर सलिलरूपी आनन्द में विभोर होकर अवगाहन कर रहे थे, उनके नेत्रों के सामने वह आनन्दमय दृश्य हटा दिया जाय, यह कितना गर्हणीय काम होगा। हाय रे विधाता ! तेरे सभी काम निर्दयतापूर्ण होते हैं ! निर्दयी ! दुनियाभर की निर्दयता का ठेका तैने ही ले लिया है। भला, जिनके मनोहर चन्द्रवदन को देखकर हमारा मनकुमुद खिल जाता है, उसे हमारी आँखों से ओझल करने में तुझे क्या मजा मिलता है? तेरा इसमें लाभ ही क्या है? क्यों नही तू सदा उसे हमारे पास ही रहने देता। किन्तु कोई दयावान हो उससे तो कुछ कहा- सुना भी जाय, जो पहले से ही निर्दयी है, उससे कहना मानो अरण्य में रोदन करना है। हाय रे विधाता ! सचमुच लीलासंवरण के वर्णन के अधिकारी तो व्यास, वाल्मीकि ही हैं। इनके अतिरिक्त जो नित्य महापुरुषों की लीलासंवरण का उल्लेख करते हैं, वह उनकी अनधिकार चेष्टा ही है। महाभारत में जब अर्जुन की त्रिभुवनविख्यात शूरता, वीरता और युद्ध चातुर्य की बातें पढ़ते हैं तो पढते-पढते रोंगटे खड हो जाते हैं। हमारी आँखों के सामने लम्बी-लम्बी भुजाओं वाले गाण्डीवधारी अर्जुन की वह विशाल और भव्य मूर्ति प्रत्यक्ष होकर नृत्य करने लगती है। उसी को जब श्रीकृष्ण के अदर्शन के अनन्तर आभीर और भीलों द्वारा लुटते देखते हैं, तो यह सब दृश्य-प्रपंच स्वप्नवत प्रतीत होने लगता है। तब यह प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है कि यह सब उस खिलाडी श्रीकृष्ण की खिलवाड है, लीला-प्रिय श्याम की ललित लीला के सिवा कुछ नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो प्राणी आज ही जिस शरीर हँस रहे थे, सुन्दर-सुन्दर पद गा रहे थे, उत्तम-उत्तम श्लोकों का पाठ कर रहे थे, वे ही न जाने आज ही कहाँ अदृश्य हो गये। अब उनका पांचभौतिक शरीर दीखत ही नहीं। कराल काल की कैसी कठोर और कष्टप्रद क्रीडा है। उसकी ऐसी चेष्टा को बार-बार धिक्कार है। सु.र.भा. 390।391