श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी171. समुद्रपतन और मृत्युदशा
शरज्ज्योत्स्नासिन्धोरवकलनया जातयमुना सर्वशास्त्रों में श्रीमद्भावगत श्रेष्ठ है। श्रीमद्भागवत में भी दशम स्कन्ध सर्वश्रेष्ठ हैं, दशम स्कन्ध में भी पूर्वार्ध श्रेष्ठ है और पूर्वार्ध में भी रासपंचाध्यायी सर्वश्रेष्ठ है और रासपंचाध्यायी में भी ‘गोपी-गीत’ अतुलनीय है। उसकी तुलना किसी से की ही नहीं जा सकती, वह अनुपमेय है। उसे उपमा भी दे तो किसकी दें। उससे श्रेष्ठ या उसके समान संसार में कोई गीत है ही नहीं। महाप्रभु को भी रासपंचाध्यायी ही अत्यन्त प्रिय थी। वे सदा रासपंचाध्यायी के ही श्लोकों को सुना करते थे और भावावेश में उन्हीं भावों का अनुकरण भी किया करते थे। एक दिन राय रामानन्द जी ने श्रीमद्भागवत के तैंतीसवें अध्याय में से भगवान् की कालिन्दी कूल की जल-क्रीडा की कथा सुनायी। प्रभु के दिनभर वही लीला स्फुरण होती रही। दिन बीता, रात्रि आयी, प्रभु की विरहवेदना भी बढने लगी। वे आज अपने को संभालने में एकदम असमर्थ हो गये। पता नहीं किस प्रकार वे भक्तों की दृष्टि बचाकर समुद्र के किनारे-किनारे आईटोटा की ओर चले गये। वहाँ विशाल सागर की नीली-नीली तरंग उठकर संसार को हृदय की विशालता, संसार की अनित्यता और प्रेम की तन्मयता की शिक्षा दे रही थीं। प्रेमावतार, गौरांग के हृदय से एक सुमधुर संगीत स्वत: ही उठ रहा था। महाप्रभु उस संगीत के स्वर को श्रवण करते-करते पागल हुए बिना सोचे-विचारे ही समुद्र की ओर बढ़ रहे थे। अहा ! समुद्र के किनारे सुन्दर-सुन्दर वृक्ष अपनी शरत्कालीन शोभा से सागर की सुषमा को और भी अधिक शक्तिशालनी बना रहे थे। शरत् की सुहावनी शर्वरी थी, अपने प्रिय पुत्र चन्द्रमा की श्रीवृद्धि और पूर्ण ऐश्वर्य से प्रसन्न होकर पिता सागर आनन्द से उमड़ रहे थे। महाप्रभु उसमें कृष्णांग-स्पर्श से पुलकित और आनन्दित हुई कालिन्दी का दर्शन कर रहे थे। उन्हें समुद्र की एकदम विस्मृति हो गयी, वे कालिन्दी में गोपिकाओं के साथ क्रीडा करते हुए श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन करने लगे। बस, फिर क्या था, आप उस क्रीडासुख से क्यों वंचित रहते, जोरों से हुंकार करते हुए अथाह सागर के जल में कूद पड़े और अपने प्यारे के साथ जलविहार का आनन्द लेने लगे। इसी प्रकार जल में डूबते और उछलते हुए उनकी सम्पूर्ण रात्रि बीत गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो शरज्ज्योत्स्नापूर्ण रात्रि में समुद्र को देखकर यमुना के भ्रम से हरिविरहरूपी तापार्णव में निमग्न हुए जल में कूद पड़े और समस्त रात्रिभर वहीं मूर्च्छित पड़े रहे। प्रात:काल स्वरूपादि अपने अन्तरंग भक्तों को जो प्राप्त हुए वे ही शचीनन्दन श्रीगौरांग इस संसार में हमारी रक्षा करें। श्री चे. चरिता. अ. ली. 18|1