श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी20. व्रत-बन्ध
जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते। संस्कार ही जीवन-पथ के परिचायक चिह्न हैं। जैसे संस्कार होंगे उन्हीं के अनुसार जीवन आगे बढ़ेगा। संयम और नियम ही उन्नति के साधन हैं। पूज्यपाद महर्षियों ने संयम के ही सिद्धान्तों पर वर्णाश्रम-धर्म का प्रसार किया और उनके लिये पृथक-पृथक विधान बनाये। द्विजातियों के लिये 16 संस्कारों की आज्ञा दी। गर्भाधान से लेकर मृत्यु अथवा संन्यास-पर्यन्त सभी संस्कारों की एक विशेष विधि का निर्माण किया। जिनसे चित्त पर प्रभाव पड़े और भविष्य-जीवन उज्ज्वल बन सके। द्विजातियों का वेदारम्भ और उपवीत-संस्कार यही प्रधान संस्कार समझा जाता है। असल में यज्ञोपवीत-संस्कार होने पर ही बालक के ऊपर वैदिक कर्म लागू होते हैं, इसीलिये इसे व्रत-बन्ध-संस्कार भी कहते हैं। पूर्वकाल में बच्चा जब पढ़ने के योग्य हो जाता था, तो उसे सद्गुरु के आश्रम में ले जाते थे, गुरु उसे ग्रहण करके शौच, आचार और वेद की शिक्षा देते थे। बस, इसी को उपनयन-संस्कार कहते थे। विद्या समाप्त होने पर गुरु की आज्ञा से शिष्य जब घर को लौटता था, तो उसे समावर्तन-संस्कार कहते थे। ये तीनों संस्कार आज भी नाममात्र को होते तो हैं, किन्तु इन तीनों का अभिनय एक ही दिन में करा दिया जाता है। यह विकृत संस्कार आज भी हमारी महत्ता का स्मरण दिलाता है। आज निमाई का यज्ञोपवीत-संस्कार होगा। घर में विवाह-शादी की तरह तैयारियाँ हो रही हैं, मिश्र जी ने अपनी शक्ति के अनुसार इस संस्कार को खूब धूमधाम से करने का निश्चय किया है। घर के आँगन में एक मण्डप बनाया गया है। उसमें एक ओर विद्वान ब्राह्मण बैठे हुए हैं, उनके पीछे मिश्र जी के सम्बन्धी और स्नेही बैठे हैं। सामने स्त्रियाँ बैठी हैं, जो भाँति-भाँति के मंगलगीत गा रही हैं। द्वार पर बाजे बज रहे हैं, चारों ओर खूब चहल-पहल दिखायी पड़ती है। ग्रहपूजा और हवनादि का कार्य कराने के निमित्त आचार्य सुदर्शन और विष्णु पण्डित प्रभृति विद्वान मिश्रजी के पास मण्डप में बैठे हुए हैं। यथासमय क्षौर कराकर निमाई मण्डप में बुलाये गये। उनका सिर घुटा हुआ था, आचार्य ने उन्हें अपने हाथों से ब्रह्मचारियों के- से पीत वस्त्र पहनाये। पीले वस्त्र की लंगोटी पहनायी, ओढ़ने को मृगचर्म दिया और हाथ में बड़ा-सा एक पलास का दण्ड दिया। अब निमाई पूरे ब्रह्मचारी बन गये। गौर वर्ण के उज्ज्वल शरीर पर पीत वस्त्र बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। पिता के पास बैठकर इन्होंने समिधाधान किया, अग्नि में आहुति दी और यज्ञोपवीत धारण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जन्मकाल में बालक शूद्रतुल्य ही होता है। संस्कार होने से उनकी द्विजसंज्ञा होती है? जो निरन्तर वेदों का ही अध्ययन-अध्यापन करते-कराते रहते हैं इससे वे विप्र कहाते हैं और जिसे ब्रह्म का साक्षात्कार हो गया वही असल में ब्राह्मण है। धर्मशास्त्र