श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी156. निन्दक के प्रति भी सम्मान के भाव
क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति। महात्मा दादू दयाल जी ने निन्दा करने वाले को अपना पीर-गुरु बताकर उसकी खूब स्तुति की। जिन पाठशालाओ में परीक्षक होते हैं और वे सदा परीक्षा ही लेते रहते हैं, उसी प्रकार इन निन्दकों को भी समझना चाहिये। परीक्षक उन्हीं छात्रों की परीक्षा करते हैं, जो विद्वान बनने की इच्छा से पाठशाला में निमित्त प्रवेश करते हैं। जो बालक पढ़ता ही नहीं, जो जानवरों की तरह पैदा होते ही खाने-पीने की चिन्ता में लग जाता है उसकी परीक्षक परीक्षा ही क्या करेगा? वह तो निरक्षरता की परीक्षा में पहले ही उत्तीर्ण हो चुका है। इसी प्रकार निन्दक लोग उसी की निन्दा करते हैं तो इहलौकिक तथा पारलौकिक उन्नति करना चाहते हैं, जो श्रेष्ठ बनने की इच्छा से उन्नति की पाठशाला में प्रवेश करते हैं। जिसके जीवन में कोई विशेषता ही नहीं, जो आहार, निद्रा, भय और मैथुनादि धर्मों में अन्य प्राणियों के समान व्यवहार करता है उसकी निन्दा स्तुति दोनों समान हैं। इहलौकिक उन्नति में निन्दा चाहे कुछ विघ्न भी कर सके, किन्तु पारलौकिक उन्नति में तो निन्दा सहायता ही करती हैं। निन्दा के दो भेद हैं- एक तो अपवाद, दूसरा प्रवाद। बुरे काम करने पर जो निन्दा होती है उसे अपवाद कहते हैं। उससे बचने की सभी को जी जान से कोशिश करनी चाहिये, किंतु कोई निन्दित कर्म किया तो है नहीं और वैसे ही लोग डाह से, द्वेष से या भ्रम से निन्दा करने लगे हैं उसे प्रवाद कहते हैं। उन्नति के पथ की ओर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को प्रवाद की परवा न करनी चाहिये। प्रवाद ही उन्नति के कण्टकाकीर्ण शिखर पर चढ़ाने के लिये सहारे की लाठी का काम देता है। जो लोकरंजन के लिये प्रवाद की परवा करके उसकी असथार्थता लोगों पर प्रकट करते हैं वे तो ईश्वर हैं। ईश्वरों के तो वचनों को ही सत्य मानना चाहिये, उनके आचरणों की सर्वत्र नकल न करनी चाहिये। धोबी के प्रवाद पर निष्कलंक और पतिपरायणा सती-साध्वी जगन्माता सीता जी को श्री रामचन्द्र जी ने त्याग दिया। लोगों के दोष लगाने पर भगवान स्यमन्तकमणि को ढूँढते-ढूँढते परेशान हो गये। ये कार्य उन्हीं अवतारी पुरुषों को शोभा देते हैं हम साधारण कोटि के जीव यदि इस प्रकार के प्रवादों की परवा करें तब तो हम लोगों को पैर रखने की जगह भी न मिलेगी, क्योंकि जगत प्रवाद प्रिय है, इसे दूसरों की झूठी निन्दा करने में मजा मिलता है। ऐसे ही एक निन्दक महाशय स्वामी रामचन्द्रपुरी प्रभु के समीप कुछ काल रहे थे, उनका वृत्तान्त सुनिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसके हाथ में क्षमारूपी शस्त्र है, उसका दुर्जन लोग का विगाड़ सकते हैं? जहाँ तिनके ही न हों, वहाँ यदि अग्नि गिर भी पड़े तो थोड़ी देर में आप-से-आप ही शान्त हो जायेगी। सु. र. भां 87/1