श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी153. श्री शिवानन्द सेन की सहनशीलता
न भवति भवति च न चिरं पहले तो महापुरुषों को क्रोध होता ही नहीं है यदि किसी विशेष कारणवश क्रोध हो भी जाय तो वह स्थायी नहीं रहता, क्षण भर में ही शान्त हो जाता है। यदि कोई ऐसा ही भारी कारण आ उपस्थित हुआ और महापुरुषों का कोप कुछ काल तक बना रहा तो उसका परिणाम सुखकारी ही होता है। महापुरुषों को बड़ा भारी कोप और नीच पुरुषों का अत्यधिक स्नेह दोनों बराबर ही हैं। बल्कि कुपुरुषों के प्रेम से सत्पुरुषों का क्रोध लाख दर्जे अच्छा है, किन्तु सत्पुरुषों के क्रोध को सहन करने की शक्ति सब किसी में नहीं होती है। कोई परम भाग्यवान क्षमाशील भगवद्भक्त ही महापुरुषों के क्रोध को बिना मन में विकार लाये सहन करने में समर्थ होते हैं और इसीलिये वे संसार में सुयश के भागी बनते हैं। क्योंकि शास्त्रों में मनुष्य का भूषण सुन्दर रूप बताया गया है, सुन्दर रूप भी तभी शोभा पाता है, जब उसके साथ सदगुण भी हों। सदगुणों का भूषण ज्ञान है और ज्ञान का भूषण क्षमा है।[2]चाहे मनुष्य कितना भी बड़ा ज्ञानी क्यों न हो, उसमें कितने ही सदगुण क्यों न हों, उसका रूप कितना ही सुन्दर क्यों न हो, यदि उसमें क्षमा नहीं है, यदि वह लोगों के द्वारा कही हुई कड़वी बातों को प्रसन्नतापूर्वक सहन नहीं कर सकता तो उसका रूप, ज्ञान और सभी प्रकार के सदगुण व्यर्थ ही हैं। क्षमावान तो कोई शिवानन्द जी सेन के समान लाखों-करोड़ों में एक आध ही मिलेंगे। महात्मा शिवानन्द जी तो क्षमा के अवतार ही थे- इसे पाठक नीचे की घटना से समझ सकेंगे। पाठकों को यह तो पता ही है कि गौड़ीय भक्त रथ यात्रा को उपलक्ष्य बनाकर प्रतिवर्ष ज्येष्ठ के अन्त में अपने स्त्री-बच्चों के सहित श्री जगन्नाथ पुरी में आते थे और बरसात के चार मास बिताकर अन्त में अपने-अपने घरों को लौट जाते थे। उन सबके लाने का, मार्ग में सभी प्रकार के प्रबन्ध करने का भार प्रभु ने शिवानन्द जी को ही सौंप दिया था। वे भी प्रतिवर्ष अपने पास से हजारों रुपये व्यय करके बड़ी सावधानी के साथ भक्तों को अपने साथ लाते थे। सबसे अधिक कठिनाई घाटों पर उतरने की थी। एक एक, दो-दो रुपये उतराई लेने पर भी घाट वाले यात्रियों को ठीक समय पर नहीं उतारते थे। यद्यपि महाप्रभु के देशव्यापी प्रभाव के कारण गौर भक्तों को इतनी अधिक असुविधा नहीं होती थी, फिर भी कोई कोई खोटी बुद्धि वाला घटवारिया इनसे कुछ-न-कुछ अड़ंगा लगा ही देता था। ये बड़े सरल थे, सम्पूर्ण भक्तों का भार इन्हीं के ऊपर था, इसलिये घटवारिया, पहले-पहल इन्हें ही पकड़ते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सज्जनों को क्रोध और नीच पुरुषों को स्नेह पहले तो होता ही नहीं, यदि होता भी है तो देर तक नहीं ठहरता, यदि देर तक रहा भी तो फल उल्टा ही होता है। इस प्रकार सत्पुरुषों का कोप नीच पुरुषों के स्नेह के ही समान है। सु. र. भां. 49/10/107
- ↑ नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभरणं गुणः। गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा।।