श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी141. श्री सनातन का अदभूत वैराग्य
शरीरं व्रणवद् बोध्यमन्नं च व्रणलेपनम्। महाप्रभु का सम्पूर्ण जीवन त्यागमय था, त्याग उन्हें सबसे अधिक प्रिय था, संसारी भोगों का जब भी त्याग किया जाये, जितना ही त्याग किया जाये उतना ही अच्छा है, किन्तु त्याग वैराग्य के बिना टिकता नहीं, इसीलिये वे मरकट वैराग्य के विरुद्ध थे। अपने शरणा पन्न भक्तों को वे खूब ठोक-बजाकर देख लेते थे कि इनके जीवन में वैराग्य है कि नहीं। यदि वैराग्य देखते तब तो उसे महान वैराग्य का उपदेश करते और जब उन्हें वैराग्य की कमी प्रतीत होती तो उसे श्रीकृष्ण प्रीत्यर्थ घर में ही रहकर निष्काम भाव से संसारी कर्मों को करते रहने की ही शिक्षा देते। वे जानते थे कि ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करते हैं; इसलिये सब किसी को विषयों से एकदम हट जाने का आग्रह नहीं करते और त्याग न करने वाले को वे बुरा भी नहीं बताते, क्योंकि विषयों का त्याग सब नहीं कर सकते, त्याग करने वाले तो कोई बिरले ही होते हैं। श्रीरूप और सनातन के व्यवहार से ही प्रभु समझ गये कि इन लोगों के जीवन में महान वैराग्य है। सचमुच ये दोनों भाई पहले जितने अधिक भोगी थे पीछे उससे भी अधिक त्यागी बन गये। श्री सनातन जी के लिये तो सुनते हैं कि घर बनाकर या कुटिया में रहना तो अलग रहा, वे एक दिन से अधिक एक पेड़ के नीचे भी वास नहीं करते थे। बारहों महीने जंगल में किसी पेड़ के नीचे पड़े रहना, दूसरे दिन उसे छोड़कर दूसरे वृक्ष के नीचे चले जाना-यही इनका दैनिक व्यापार था। व्रजवासियों के घरों से रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े मांग लाते। उन्हें यमुना-जल के साथ जिस-किसी भाँति गले से नीचे निगल जाते। जो बचे रहते उन्हें पृथ्वी में गाड़ देते और दूसरे दिन उन्हें जल में मीजकर फिर खा जाते। ओढ़ने को रास्ते में पड़े हुए चिथड़ों की एक गुदड़ी मात्र रखते। पात्रों में उनके पास मिट्टी के एक टोंटनीदार करुवे के सिवा कुछ नहीं रहता। 'कर करुवा गुदरी गले' यही इनका बाना था। इसी प्रकार इन्होंने बीसों वर्ष श्री वृन्दावन की पवित्र भूमि में बिताये। प्रेमावतार गौरांग इनके इस वैराग्य से बड़े सन्तुष्ट होते थे और वृन्दावन से जो भी आता उसी से इनका समाचार पूछते। सनातन को महान वैराग्य की शिक्षा प्रभु ने काशीधाम में ही दी थी। महाप्रभु ने स्पष्ट नहीं कहा। स्पष्ट तो मूर्खों और बुद्धिमान थे, एक देश का शासन उन्हीं की कुशाग्र बुद्धि से होता था। फिर तिसपर भी इनके ऊपर प्रभु की पूर्ण कृपा थी, फिर वे महाप्रभु के संकेत को क्यों न समझते। पाठकों को अगली घटना से इसका पता चल जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ज्ञानी लोग इस शरीर को फोडे की तरह समझते हैं, जिस प्रकार फोड़े में पुलटिस बाँधते हैं, उसी प्रकार वे अन्न के टुकड़े खाकर निर्वाह करते हैं, फोड़ा और अधिक न सड़ जाय, इसलिये उसे रोज धोते हैं, इसी प्रकार वे स्नान कर लेते हैं, जिस प्रकार कपड़े से फोड़े को बांधे रहते हैं उसी प्रकार वे वस्त्रों को पहनते हैं, अर्थात उनका भोजन, स्नान और वस्त्र इस शरीर को सजाने, पुष्ट करने या सुखी रखने के लिये नहीं होता। वे इसे सुरक्षित रखने को ही इन क्रियाओं को करते हैं।