श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी135. पठानों को प्रेम-दान और प्रयाग में प्रत्यागमन
मलयाचलगन्धेन त्विन्धनं चन्दनायते। यमुना-पार करके अनिच्छापूर्वक चल रहे थे। वृन्दावन की पुण्य-भूमि को छोड़ने में उन्हें अपार कष्ट हो रहा था। भट्टाचार्य आदि प्रभु के साथी उन्हें पकड़कर चल रहे थे। महाप्रभु अब अधिक चलने में समर्थ न हुए। वे एक सुन्दर सघन वृक्ष की छाया में अपने साथियों के सहित बैठ गयें जहाँ बैठकर प्रभु विश्राम कर रहे थे वहीं पास में कुछ गौएं चर रही थीं। व्रजमण्डल की सुन्दर और सीधी गौएं अब भी अपने गोपाल की चुलबुली और प्रेममयी मूर्ति का स्मरण दिलाती हैं। गौएं इधर-उधर चल रही थीं। पास में ही गौएं चराने वाले ग्वाल-बाल आपस में क्रीड़ा कर रहे थे। व्रजमण्डल की परिधि चौरासी कोस की है। इस चौरासी कोस की बोली में कितनी मिठास है, कितनी सरता है और कितनी निश्छलता है, उसे हृदयवान पवित्र पुरुष ही जान सकता है। व्रजमण्डल के गांवों में पर्दे का विशेष बन्धन नहीं है। होली के दिनों में स्त्री-पुरुष निष्कपटभाव से एक-दूसरे के साथ बिना जान-पहचान के होली खेलते हैं। यों निर्विकार तो पृथ्वी पर कोई है ही नहीं, किन्तु अन्य स्थानों की अपेक्षा व्रजमण्डल में विकारी भाव बहुत कम है। व्रज में 'सारे' कहना तो एक साधारण-सी बात है। 'सारे' वहाँ गाली नहीं समझी जाती। प्रायः बच्चे बात-बात में 'सारे' कहते हैं। व्रजमण्डल के अनपढ़ ग्वाल-बालों के मुखों से भी आप श्रीकृष्ण-लीला के ही पद सुनेंगे। व्रज के अनपढ़ मनुष्य श्रीकृष्ण-लीला-सम्बन्धी रसिया बड़े ही स्वर से गाते हैं। सुनते-सुनते उनमें से रस टपकने लगता है और सुनने वाला उस मधुर रस में छक-सा जाता है। गौओं को एक ओर छोड़कर ग्वाल-बाल मिलकर गीत गा रहे थे- सभी मिलकर हाथ उठा-उठाकर और कमर को हिला-हिलाकर गा रहे थे- वारो सो कन्हैया कालीदह पै खेलन आयो रे! कुछ ग्वाल-बाल गा रहे थे, एक उनमें से त्रिभंगललित-गति से खड़ा होकर बांसुरी बजा रहा था। वह अपने साथियों की तान के साथ ही चेष्टा को बताया हुआ और सिर को इधर-उधर घुमाता हुआ वंशी बजा रहा था। महाप्रभु ने व्रजमण्डल में मुरली की मधुर तान सुनी, उन की दृष्टि सामने की क्रीड़ा करती हुई ग्वाल-मण्डली के ऊपर पड़ी। बस, फिर क्या था, वे प्रेम में गद्गद होकर अपने-आप को भूल गये और एकदम ऊपर उछलने लगे। उछलते-उछलते बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इतने में ही कोई मुसलमान राजकुमार अपने धर्मगुरु के साथ दस-बीस घुड़सवारों को लिये हुए वहाँ आ निकला। उन सवारों में से किसी एक ने बेहोश हुए प्रभु को देखा। महाप्रभु के मुख से झाग निकल रहे थे और उन की आँखें ऊपर चढ़ी हुई थीं। प्रभु की ऐसी दशा देखकर उस सवार ने अपने स्वामी से यह बात कही। सभी सवार फौरन अपने-अपने घोड़ो पर से उतर पड़े। महाप्रभु के अदभुत रूप-लावण्ययुक्त दिव्य मुख को देखकर सभी हठात उन की ओर आकर्षित हो गये और उन सबके हृदय में प्रभु के प्रति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न हो गया। उन्होंने समझा कि इस संन्यासी के पास कुछ द्रव्य होगा, उसी के लालच से इसके साथियों ने उसे धतूरा दे दिया है। यह सोचकर उन सवारों के सरदार ने प्रभु के सभी साथियों को कसकर बांध लिया और कहने लगे-'यहीं इनका कत्ल कर डालो।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मलयाचल की सुगन्ध से ईंधन भी जिस प्रकार चन्दन बन जाता है वैसे ही सज्जनों के संसर्गमात्र से दुर्जन पुरुष भी सज्जन बन जाते हैं। सु. र. भां. 90।4