श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी134. श्री वृन्दावन आदि तीर्थों के दर्शन
क्वचिद्भृंगीगीतं क्वचिदनिलभंगीशिशिरता मथुरा से मधुवन, तालवन, कुमुदवन, बहुलावन आदि वनों को देखते हुए और रास्ते में अनेक तीर्थ कुण्डों में स्नान, आचमन करते हुए प्रभु भगवान की प्रधान लीलास्थली त्रैलोक्यपावन श्रीवृन्दावन की भूमि में पहुँचे। वृन्दावन में प्रवेश करते ही प्रभु भावावेश में आकर मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। वे चारों ओर आँखें फाड़-फाड़कर पागल की भाँति इधर-उधर देखने लगे। उन्होंने देखा कहीं तो कदम्ब के वृक्षों की पंक्तियां खड़ी हुई हैं। कहीं करील के वृक्षों पर टेंटियां और लाल-लाल फूल लगे हुए हैं। कहीं गौएं चर रही हैं, तो कहीं व्रज के ग्वाल-बाल किलोलें कर रहे है। कहीं मयूर नाच रहे हैं तो कहीं सारस, हंस, चकवा, जल-मुर्ग आदि जल के पक्षी उड़-उड़कर कालिन्दी-कूल की ओर जा रहे हैं। प्रभु आँखें फाड़-फाड़कर सब की ओर प्रेम भरी दृष्टि से देखने लगते। कभी जल्दी से उठकर वृक्षों को आलिंगन करते, उन पर से बहुत- से पुष्प गिर-गिरकर प्रभु के पादपद्यों को ढक देते, मानो वृक्ष अपने प्यारे के पैरो में श्रद्धांजलिस्वरूप पुष्प चढ़ा रहे हों। प्रभु गौओं की ओर पूर्वपरिचित की भाँति दौड़ते और उन की पीठों पर अपने कोमल करोंको फिराते। गौएं रंभाती हुई पूंछ उठा-उठाकर प्रभु की ओर दौड़तीं और उनके हाथ-पैरों को चाटने लगतीं। व्रज के पक्षी प्रभु के बिलकुल निकट आ-आकर अपनी-अपनी भाषा में कुछ कहते, प्रभु उन की प्रेमभरी वाणियों को सुनकर सिर हिलाने लगते, मानो वे उन की बातों को समझकर संकेत के द्वारा उनका उत्तर दे रहे हैं। प्रभु के आनन्द की सीमा नहीं रहीं, वे वृन्दावन में आते ही सभी बातों को भूल गये और जिस प्रकार जल से पृथक की हुई मछली फिर महासागर में डाल देने से परमानन्द का अनुभव करती है उसी प्रकार व्रज की पावन रज में लोटकर प्रभु उसी परमानन्दस्वरूप सुख का अनुभव करने लगे। यहाँ से जाकर प्रभु ने व्रजमण्डल के प्रायः सभी तीर्थों के दर्शन किये। प्रभु के समय में वृन्दावन सचमुच वन ही था। दस-बीस ब्राह्मणों के और ग्वालों के झोंपड़े थे, नहीं तो चारों ओर वन-ही-वन था। बहुत ही भावुक भक्त वहाँ दर्शन करने आते थे और दर्शन कर के मथुरा लौट जाते थे। व्रजमण्डल के बहुत- से तीर्थ और कुण्ड लुप्तप्राय हो गये थे। लोग उनका नाम तक नहीं जानते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अपने प्रिय सखा भगवान कह रहे हैं- प्रिय सखे! यह वृन्दावन मेरी इन्द्रियों को भाँति-भाँति से प्रसन्नता पहुँचा रहा है। देखते हो न, किसी स्थान पर मधुलोलुप भ्रमर अपने सुरीली तान से गान कर रहे हैं, कहीं मन्द-सुगन्धित पवन चलकर शीतलता प्रदान कर रहा है, कहीं-कहीं वायु के वेग से लताएँ नाच-नाचकर अपने सौरभ से सुख पहुँचा रही हैं। कहीं मल्लिका को पुष्पों का अमल परिमल मन को मुग्ध कर रहा है, किसी स्थान पर अनारों के फलों से धारावाही रस निर्झर प्रवाहित हो रहे हैं। इस प्रकार वृन्दावन में चारों ओर बहार-ही-बहार है। विदग्धमाधवना. 1।29