श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी133. पुरी में प्रत्यागमन और वृन्दावन की पुनः यात्रा
गच्छन वृन्दावनं गौरो व्याघ्रेभैणखगान् वने। शान्तिपुर से विदा होकर महाप्रभु श्रीहट्ट, पानीहाटी आदि स्थानों में होते हए फिर लौटकर पुरी में आ गये। सब से पहले वे श्रीजगन्नाथ जी के दर्शनों को गये। भगवान को साष्टांग प्रणाम कर के वे गद्गद कण्ठ से उन की स्तुति करने लगे। पुजारी ने प्रभु को माला-प्रसाद लाकर दिया। भगवान का प्रसाद पाकर मन्दिर की प्रदक्षिणा करते हुए प्रभु अपने वासस्थान पर पहुँच गये। प्रभु के पुनः पुरी में पधारने का समाचार बात- की-बात में सम्पूर्ण नगर में फैल गया। जो भी सुनता वहीं प्रभु के दर्शनों को दौड़ा आता। सार्वभौम भट्टाचार्य, रामानन्दराय, काशी मिश्र, माइती, गदाधर आदि सभी भक्त प्रभु के स्थान पर आ गये। सभी ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- 'प्रभो! हमारा सौभाग्य, जो इतनी जल्दी आप के दर्शन हो गये, यह समय तीर्थयात्रा का नहीं है।' प्रभु ने कहा- 'और कुछ नहीं है, मुझे गदाधर जी का शाप लग गया। इन्हें साथ नहीं ले गया और जबरदस्ती यहाँ छोड़ गया, इसीलिये मैं वृन्दावन नहीं जा सका।' हाथ जोड़े हुए दीनभाव से गदाधर गोस्वामी ने कहा- 'प्रभो! आप के लिये वृन्दावन क्या, आप जहाँ भी बैठें वहीं वृन्दावन है, किन्तु लोक-शिक्षण के लिये आप तीर्थ यात्रा आदि करते हैं, यह आप की लीला-मात्र है!' प्रभु ने कहा- 'सनातन ने मुझे सर्वोत्तम सम्मति दी है, वे दोनों भाई बड़े ही भागवत वैष्णव हैं, उन के हृदय में प्रभु-प्रेम कूट-कूटकर भरा हुआ है। इतना भारी राज- काज करते हुए भी वे सदा उस से उदासीन ही बने रहते हैं और भगवान का सदा चिन्तन करते रहते हैं। उन्होंने ही मुझे सम्मति दी है कि वृन्दावन अकेले ही जाना चाहिये। इसलिये अब के मैं अकेला ही वृन्दावन जाऊंगा।' राय रामानन्दजी ने निवेदन किया- 'प्रभो! वर्षा काल सन्निकट है, रथ-यात्रा का उत्सव भी आ रहा है, अतः रथ-यात्रा कर के और चातुर्मास बिताकर फिर जैसा भी विचार हो कीजियेगा।' राय महाशय की इस बात का सार्वभौम भट्टाचार्य, स्वरूप गोस्वामी, गदाधर आदि सभी भक्तों ने अनुमोदन किया। प्रभुने सब की सम्मति के सम्मुख सिर झुका दिया और वे वर्षा काल बिताकर ही वृन्दावन जाने के लिये राजी हो गये। शान्तिपुर से चलते समय प्रभु भक्तों से कह आये थे कि 'अब के हम वृन्दावन चले जायंगे अतः रथ-यात्रा में अब पुरी आने की आवश्यकता नहीं है।' प्रभु की आज्ञा मानकर इस साल गौड़ीय भक्त दल बनाकर पहले की भाँति रथ-यात्रा के लिये नहीं आये थे। महाप्रभु ने सदा की भाँति रथ-यात्रा का उत्सव मनाया और पुरी में ही वर्षा के चार मास व्यतीत किये। |
टी का टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वन्दावन जाते-जाते रास्ते में अरण्य के सिंह, हस्ती, मृग और पक्षियों तक को भी कृष्ण-प्रेम में उन्मत्त करते हुए और उन के मुख से श्रीहरि के सुमधुर नामों का उच्चारण कराते हुए श्रीगौरांग उन्हें अपने साथ ही नृत्य कराते थे। चैतन्यचरिता. मध्य ली. 17।1